उदाहरण स्वरूप हमें यहाँ सत्यवादी श्री हरिश्चन्द्र का स्मरण हो आता है जो कि शयन दशा में दे डाले हुये अपने राज्य को भी त्याज्य समझ लेते हैं और फिर उसको उत्सर्ग करने के प्रतिफल रूप में बनारस के कालू भंगी के यहाँ कर्मचारी हो रहने को भी अपना सौभाग्य समझते हैं।
इधर उन्हीं के समान उनकी पत्नी जो कि एक गृहस्थ के यहाँ नौकरानी बनकर अपना गुजर बसर करने लग रही थीं, उसके पुत्र रोहितास को सर्प काट जाता है जिससे उसकी मृत्यु हो जाती है।
उसकी लाश को वह (रानी) ले जाकर ज़ब हरिश्चन्द्र घाट पर जलाने लगती है तो हरिश्चन्द्र अपने मालिक कालू के द्वारा निश्चित की हुई टैक्स वसूल किये बिना जलाने नहीं देते हैं।
अपने मन में जरा भी संकोच नहीं करते हैं कि यह मेरे पुत्र की लाश है और मेरी ही स्त्री इसे जला रही है।
बल्कि सोचते हैं जब मेरे मालिक ने टैक्स निश्चित कर रखा है और उसको वसूली के लिये मुझे यहाँ नियत किया है, फिर भला कोई भी क्यों न हो उससे टैक्स वसूल करना मेरा धर्म है।
ओह! कितना ऊँचा आदर्श है? जिसे स्मरण कर हृदय आनन्द विभोर हो जाता है। परन्तु उन्हीं की सन्तान प्रति सन्तान आज के इन भारतवासियों तरफ में जब हम निगाह डालते हैं तो रुलाई भी आ जाती है, क्योंकि आज के हम तुम सरीखे लोग दो दो पैसे में अपने ईमान धर्म को बेचने के लिये उतारू हो रहते हैं!
बल्कि कितने ही लोग तो बिना मतलब ही झूठी बातें बनाने में प्रवृत्त होकर अपने आपको धन्य मानते हैं। परन्तु उन्हें सोचना चाहिये कि सत्य के बिना मनुष्य का जीवन वैसा ही है जैसा कि बकरी के गले में हो रहने वाले स्तन का होता है।
-आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज
इन्हीं दिनों कोई नाटक कंपनी आयी थी और उसका नाटक देखने की इजाजत मुझे मिली थी। हरिश्चन्द्र का आख्यान था। उस नाटक को देखते हुए मैं थकता न था।
उसे बार-बार देखने की इच्छा होती थी। लेकिन यों बार-बार जाने कौन देता? पर अपने मन में मैंने उस नाटक को सैकड़ों बार खेला होगा। मुझे हरिचन्द्र के सपने आते।
'हरिश्चन्द्र की तरह सत्यवादी सब क्यों नहीं होते?' यह धुन बनी रहती। हरिश्चन्द्र पर जैसी विपत्तियाँ पड़ीं वैसी विपत्तियों को भोगना और सत्य का पालन करना ही वास्तविक सत्य है।
मैंने यह मान लिया था कि नाटक में जैसी लिखी हैं, वैसी ही बिपत्तियाँ हरिश्चन्द्र पर पड़ी होंगी। हरिश्चन्द्र के दुःख देखकर, उनका स्मरण करके मैं खूब रोया हूँ। आज मेरी बुद्धि समझती है कि हरिश्चन्द्र कोई ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं था।
फिर भी मेरे विचार में हरिश्चन्द्र और श्रवण आज भी जीवित हैं। मैं मानता हूँ कि आज भी उन नाटकों को पढूँ, तो मेरी आँखों से आँसू बह निकलेंगे।
-महात्मा गांधी की आत्मकथा से
Comments
Post a Comment