नमस्कार दोस्तों, इस पोस्ट का विषय पढ़ने के बाद आप सोच रहे होंगे कि वस्त्रों में हिंसा कैसे सम्मिलित हो सकती है?
वस्त्र स्वभाव से कभी हिंसक नहीं थे। पर वर्तमान काल में वस्त्रों में विकृति आ गयी है, और इसका श्रेय आज के मनुष्य को जाता है।
आज का मानव विज्ञान के क्षेत्र में तो आगे बढ़ रहा है पर मानवता के क्षेत्र में गिरता जा रहा है।
यदि आप यह सोच रहे हैं कि मैं यहां सूक्ष्म हिंसा की बात कर रहा हूं तो आप गलत हैं। मैं यहां पर बकरे काटने जैसी स्थूल हिंसा की बात कर रहा हूं।
चलिए तो फिर मैं आपको बता देता हूं कि वस्त्रों में यह हिंसा की वृत्ति कैसे लाई गई है।
तीन प्रकार से वस्त्रों में स्थूल हिंसा देखने में आती है।
- यदि वस्त्र सिल्क के रेशे से बने हुए हों
- टेरीकॉट के कपड़ों में
- शुद्ध कपास के कपड़ों में भी यदि वे पावरलूम पर बने हुए हों
सिल्क का रेशा सिल्क के कीड़ों को उबालकर के प्राप्त होता है, तो यह हिंसा हुई।
टेरीकॉट का कपड़ा बनते समय उस पर शुरुआत में साइजिंग और बन जाने के बाद सॉफ्टनर का उपयोग इसमें मांसाहार ला देता है।
टेरीकॉट के वस्त्रों में एक प्रकार से सूक्ष्म हिंसा भी है। वह इस वजह से क्योंकि टेरीकॉट पॉलिस्टर से बनता है और पॉलिस्टर डामर से बनता है। पर पॉलिस्टर को वापस डामर बनने में दसों लाख सालों से ज्यादा लग जाते हैं।
इस बीच में यह सिंथेटिक कपड़े न जाने कितने वन्यजीवों के बीमार होने का, मृत्यु का भयावह कारण बन जाते हैं। बताइए तो यह हिंसा हुई या नहीं?
सिंथेटिक कपड़े कैसे बनते हैं इसके बारे में मैंने नीचे दी हुई पोस्ट में लिख रखा है।
इस पोस्ट में तो मैं आपको तीसरे नंबर की हिंसा के कारण का विश्लेषण दूंगा। ऐसी हिंसा जिसमें सूती धागे का इस्तेमाल करने पर भी हिंसा है।
यह तो अचंभे की बात है कि सूती कपड़े से भी हिंसा हो सकती है!
यदि आप शुद्ध सूती कपड़े के माध्यम से वस्त्र बनाना चाह रहे हैं तो आपको यह पता होगा कि सूत बहुत कमजोर होता है।
असल में होता यह है कि सूत का इतना महीन होने के कारण उस पर माढ़ लगाई जाती है। जो कि सूत को करघे के घिसाव एवं झटकों से बचाती है, जिससे धागा जल्दी टूटता नहीं है और झटकों को सह लेता है।
इस माढ़ लगाने प्रक्रिया को अंग्रेजी में साइजिंग कहते हैं। पुराने समय में हम भारतीय इस साइजिंग को प्राकृतिक पदार्थों द्वारा किया करते थे। प्राकृतिक पदार्थ जैसे चावल का पानी, गेहूं का पानी इत्यादि। जिससे चावल एवं गेहूं को उत्पादन करने वाले किसान भी कपड़े बनने की प्रक्रिया में शामिल होते थे।
अब आजकल होता क्या है कि कपड़े तो बनते हैं पावरलूम पर, जिसकी गति इतनी तेज होती है कि उनमें शुद्ध सूती धागा चलाया ही नहीं जा सकता है। यदि आपको शुद्ध सूती कपड़े चाहिए हैं तो फिर आपको साइजिंग भी करनी पड़ेगी। आजकल साइजिंग पुरानी पद्धति से नहीं होती है।
चूंकि अब सभी लोग गांव से शहरों की तरफ जा रहे हैं। तो गांव के किसानों से भी अब नाता टूटता जा रहा है। जिससे अब चावल और गेहूं के पानी की जगह मटन की माढ़ी बनने लगी है। जिसको की अंग्रेजी में मटन टैलो कहा जाता है।
और जैसा इसका नाम है, सचमुच में वैसा ही इसमें पदार्थ इस्तेमाल होता है। मटन यानी कि भेड़-बकरी की बलि को चढ़ा कर उसके मृत शरीर का उपयोग करना।
इस अहिंसक कहे जाने वाले भारत में ऐसी हिंसा कब से आ घुसी है, यह सोचनीय प्रश्न है।
यदि आपको इस बारे में विश्वास नहीं होता है, तो आप नीचे दिया हुआ पत्र पढ़ सकते हैं। यह पत्र अहमदाबाद टैक्सटाइल रिसर्च फाउंडेशन से संग्रह किया गया है।
कपड़ों में इस हिंसा से कैसे बच सकते हैं?
आजकल ज्यादातर कपड़ों में मांसाहार का उपयोग होता है। कपड़ा फैक्ट्री व मिल में बने हुए कपड़े मांसाहार के बिना बने यह असंभव है। क्योंकि फैक्ट्रीज अपना फायदा देखती हैं।
हमें चाहिए कि कपड़ों से संबंधित स्मॉल स्केल इंडस्ट्रीज खोलें। जो हमें रोजगार भी देगी
यदि आपको अपने फैशन से ज्यादा जीवो की फिक्र है, तो सिल्क व टेरीकॉट के कपड़ों का त्याग कर दीजिए।
भारत देश कब से सोया हुआ है, अब तो जाग जाइए।
धन्यवाद।
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