सागर का जल क्षार क्यों
सरिता मीठी सार
बिन श्रम संग्रह अरुचि है
रुचिकर श्रम उपकार
Sagar ka jal chhar kyon
Sarita meethi saar
Bin shram sangrah aruchi hai
Ruchikar shram upkar
आचार्य गुरुवर श्री विद्यासागर जी महाराज के द्वारा ये पंक्तियां बड़ी ही मार्मिक हैं। आपको समझने में थोड़ा समय लग सकता है। परन्तु एक बार समझ में आ जाये तो आप इसका रस ले सकते हैं।
उपर्युक्त कविता का भावार्थ:
बताइए कि सागर (समुद्र) का जल खारा क्यों होता है? और नदी का जल मीठा क्यों होता है? कुछ तो बात होगी ही। सागर को जब हम देखते हैं तो पाते हैं कि वह रुका हुआ रहता है। और हम जब नदी के ऊपर दृष्टि दौड़ाते हैं तो देखते हैं कि वह चलती हुई रहती है।
और एक बात, सागर हमेशा-हमेशा पानी को इकट्ठा करता रहता है। उसका पानी कोई भी प्राणी पीना पसंद नहीं करता है। जबकि, इसके विपरीत, नदी का पानी निरंतर बहता रहता है, सो सभी के पीने योग्य बन उठता है।
इसलिए सागर का जल खारा होता है एवं नदी का जल मीठा। हम इससे क्या सीख सकते हैं? हम इससे यह सीख सकते हैं कि हमें कभी भी बिना श्रम किये नहीं रहना है। और बगैर श्रम संपत्ति इकट्ठा करने वाला व्यक्ति सागर के जल के समान अरुचि पूर्वक होता है। वह किसी के काम नहीं आता।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। अथवा यूं कहें कि सभी मनुष्य साथ रहकर ही विकास कर सकते हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
सभी मनुष्य एक दूसरे के काम आयें यह बात हमें नदी से सीखने को मिलती है। जिस प्रकार नदी बह कर के हम लोगों के लिए पीने योग्य पानी उपलब्ध कराती है। वैसे ही हर मनुष्य की जिम्मेदारी है कि वह श्रमशील होकर जगत का उपकार करे।
धन्यवाद।
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