हैलो ! आपका मोबाइल कुछ कहता है | Dangers of Mobile Phone radiation in Hindi
गिरीश कुमार
लेखक आईआईटी बॉम्बे में प्रोफेसर हैं और रेडिएशन के प्रभावों पर अंतर-मंत्रालयीन समिति के सामने उन्होंने प्रस्तुतीकरण दिया था।
बच्चों में सेल फोन रेडिएशन का खतरा बड़ों से ज्यादा है। सिर और मस्तिष्क का छोटा आकार, नाजुक त्वचा, विकसित होती हड्डियां और लचीले कानों की वजह से वे इस खतरे के प्रति और भी संवेदनशील होते हैं। इसीलिए 16 साल से कम उम्र के बच्चों को सेल फोन का इस्तेमाल तभी करना चाहिए जब बहुत ही जरूरी हो। बेल्जियम, फ्रांस, फिनलैंड, जर्मनी, रूस और इसराइल सरीखे देशों ने बच्चों को सेल फोन के इस्तेमाल से रोकने के लिए सार्वजनिक अभियान चलाए है।
बात 2001 की है। मैं एंटीना पर अपनी किताब के लिए काम कर रहा था। मुझे आईआईटी बॉम्बे की एंटीना लैब में हर सप्ताह 80 से 90 घंटे गुजारने पड़ते थे। मैंने अपने शरीर में कुछ अजीब परिवर्तन देखे। उंगलियों में सूजन आ जाती। एसी चल रहा होता और विद्यार्थी ठंडक महसूस करते पर मुझे गर्मी लगती। डॉक्टरों ने पहले स्किन ट्रीटमेंट की दवाई दी, फिर न्यूरोलॉजिस्ट के पास भेज दिया। एक होमियोपैथ ने तो जवाब ही दे दिया। तभी मैंने अपने दफ्तर और प्रयोगशाला में रेडिएशन लेवल नापा और पाया कि यह काफी ज्यादा था। सभी कंप्यूटरों और लैपटॉप से रेडिएशन यानी सूक्ष्म तरंगों के रूप में ऊर्जा निकल रही थी। माइक्रोवेव सर्किट और एंटीना का प्रभाव अलग। मेरा शरीर इन सभी स्रोतों से इलेक्ट्रो-मैगनेटिक रेडिएशन ग्रहण कर रहा था और मुझे पता भी नहीं था। अब समाधान सीधा-सादा था। मैंने कंप्यूटरों की जगह और दिशा बदल दी, दफ्तर को लैब से कुछ अलग किया और 3-4 महीनों में काफी सुधार आ गया।
उन्हीं दिनों हमारे देश में मोबाइल फोन की जनयात्रा शुरू हो रही थी। हाथों में सेलफोन और छतों पर सेल टॉवर दिखाई देने लगे थे। समझते देर नहीं लगी कि देर-सवेर लोग माइक्रोवेव रेडिएशन की समस्या से दो-चार होने वाले हैं। मोबाइल से जिंदगी बेशक बहुत आसान और सुविधाजनक हो गई है। आज देश में 70 करोड़ से ज्यादा लोग मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते हैं। 5.4 लाख सेल टॉवर उन्हें नेटवर्क से जोड़ते हैं। यह रफ्तार है सेल फोन टेक्नोलॉजी के प्रसार की।
मोबाइल फोन से लंबे समय तक बात करते हुए कभी आपने ध्यान दिया कि आपका कान गर्म हो गया है? यह कमोबेश हम सभी का अनुभव है। लगातार करीब 20 मिनट तक सेल फोन का इस्तेमाल करने के बाद कान गर्म हो जाता है। ऐसा सेलफोन से माइक्रोवेव रेडिएशन (सूक्ष्म तरंगों के रूप में निकलने वाली ऊर्जा) के कारण होता है। इनसे कान के निचले हिस्से में खून का तापमान 1 डिग्री सेंटीग्रेड (1.8 डिग्री फैरनहाइट) बढ़ जाता है। यानी शरीर का सामान्य तापमान 98.4 डिग्री से बढ़कर 100.2 डिग्री फैरनहाइट हो जाता है, जिसे मेडिसिन की भाषा में बुखार की श्रेणी में रखा जाता है। यह रेडिएशन का थर्मल प्रभाव है।
थर्मल प्रभाव ठीक वैसा ही होता है जैसा माइक्रोवेव ओवन में खाना पकाना। इस पर भी हीटिंग के वही नियम लागू होते हैं। खाना पकाते वक्त पहले पानी या तरल पदार्थ गर्म होते हैं। ठीक उसी तरह माइक्रोवेव रेडिएशन से भी शरीर के वही हिस्से पहले गर्म होते हैं, जहां तरल पदार्थ (पानी, खून) ज्यादा हैं। हमारा शरीर 70 फीसदी पानी है, जबकि मस्तिष्क 90 फीसदी पानी है। का इसीलिए सेल फोन के रेडिएशन प्रभाव आंख, दिमाग, जोड़, दिल पर ज्यादा होता है। लेकिन इसके प्रभाव बहुत लंबे समय बाद सामने आते हैं और ज्यादातर लोगों को समय रहते पता ही नहीं चलता।
हमारा शरीर जितना रेडिएशन बगैर किसी नुकसान के स्वीकार कर लेता है, उसे विशिष्ट अवशोषण दर (एसएआर) कहा जाता है। इसे वॉट प्रति किलोग्राम (ऊतक) से नापा जाता है। अगर रेडिएशन से कम गर्मी पैदा हो रही है, तो शरीर की ताप प्रतिरोधी क्षमता सक्रिय हो जाती है और उस ऊर्जा को बेअसर कर देती है। लेकिन अगर यह गर्मी शरीर की क्षमता से 1 से 2 डिग्री सेल्सियस भी ज्यादा है, तो ऊतकों को प्रभावित करने लगती है।
इसी के आधार पर हरेक मोबाइल फोन को एक एसएआर रैटिग दी जाती है। पांच मंत्रालयों की समिति ने सेल फोन के लिए 1.6 वॉट प्रति किलोग्राम एसएआर सीमा स्वीकार की है। अमेरिका में भी यही मानक लागू है। इसका अर्थ है कि जो मोबाइल फोन 1.6 वॉट प्रति किलोग्राम रेडिएशन पैदा करते हैं, वे मानव शरीर के लिए नुकसानदायक नहीं हैं। लेकिन यह मानक प्रतिदिन केवल 6 मिनट इस्तेमाल के लिए है। अगर इसमें 3 से 4 गुना सुरक्षा की गुंजाइश भी मान लें, तो एक व्यक्ति को 1.6 वॉट प्रति किग्रा एसएआर वाले सेल फोन से दिन में अधिकतम 18 से 24 मिनट बात करनी चाहिए। भारत में सेल फोन का औसत इस्तेमाल 15 मिनट प्रति दिन है। जबकि करोड़ों लोग, खासकर युवा, दिन में कई घंटे सेल फोन का इस्तेमाल करते हैं। इन दिनों नींद में गड़बड़ी, कमजोर याददाश्त और एकाग्रता में कमी की जो बढ़ती हुई शिकायतें देखने को मिल रही हैं, बहुत संभव है कि वे सेल फोन के बढ़ते इस्तेमाल के कारण हों। सेल फोन रेडिएशन त्वचा को शुष्क करता है, नजदीक की आंख में पानी को सुखा देता है और कपाल को भेदकर दिमाग को गर्म कर देता है।
आपके हाथ चाबी
अब देश की जनता को तय करना है। क्या वह लाखों लोगों की सेहत की कीमत पर बेरोकटोक मोबाइल कनेक्टिविटी चाहती है या थोड़े समय के लिए मोबाइल फोन में कनेक्टिविटी की दिक्कतों के स्वीकार करने के लिए तैयार है। हमारे देश में मोबाइल क्रांति एक दशक से ज्यादा पुरानी नहीं है। ज्यादातर लोगों को सैल फोन प्रयोग करते हुए दस वर्ष भी नहीं हुए हैं। इसलिए इस रेडिएशन के 15, 20 और 25 वर्ष बाद प्रकट होने वाले प्रभाव अभी सामने नहीं आए हैं। जब वे सामने आएंगे, तब बहुत देर हो चुकी होगी।
इसका यह अर्थ नहीं है कि हम सेल फोन का प्रयोग करना या सेल टॉवर के नजदीक रहना बंद कर दें। या इलेक्ट्रो-मैगनेटिक रेडिएशन पैदा करने वाले इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का इस्तेमाल न करें। आज के युग में यह संभव भी नहीं है। मोटर गाड़ियां हवा को प्रदूषित करती हैं। क्या हमने उनका इस्तेमाल बंद कर दिया? इसके बजाय हमने अनलीडेड पेट्रोल, कैटेलिटिक कनवर्टर, सीएनजी, हाइब्रिड कारें सरीखे बेहतर तरीके निकाले। यही रेडिएशन के मामले में भी होगा। पहली जरूरत है जागरूकता बढ़ाने की। तभी लोग भी सतर्क होंगे और नीति निर्माता भी कठोर मानदंड अपनाएंगे। तब यह भी होगा कि रिसर्चर, टेक्नोक्रेट, वैज्ञानिक उद्यमी आगे आएंगे और नए समाधान निकालेंगे। हो सकता है वे थोड़े महंगे हों, लेकिन इंसान, पशु- पक्षी और पर्यावरण की सेहत से ज्यादा महंगे नहीं हो सकते।
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