हिन्दी क्यों | Why Hindi by Poornima Varman

अक्सर जब हम देशप्रेम या साहित्य सेवा की बात करते है तो अंग्रेज़ी में बोलते हैं और समझते हैं कि बहुत अच्छा और बड़ा काम कर रहे हैं। हमारे देश के बुद्धिजीवी कहते हैं कि हिन्दी भाषा विचारों को अभिव्यक्त करने में सक्षम नहीं है और इसलिये इसका व्यापक उपयोग नहीं हो सकता। इस बयान से उनकी हीनभावना और अशिक्षा ही झलकती है। किसी भी भाषा का कितना अच्छा और व्यापक प्रयोग हो सकता है यह उस भाषा पर नहीं उस भाषा के जानने वाले पर निर्भर करता है। अगर हम अपनी राष्ट्र‌भाषा पढ, लिख, समझ कर उसका व्यापक उपयोग नहीं कर सकते तो यह भाषा का नहीं हमारा दोष है।

विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषाओं में हिन्दी तीसरे स्थान पर है, फिर भी साहित्यिक और शैक्षिक के महत्व में इसका स्थान फ्रेंच, जर्मन और जापानी भाषाओं से बहुत नीचे है जिनके बोलने वाले हिन्दी की तुलना में बहुत कम हैं।

हिन्दी भारत नेपाल, इन्डोनेशिया, मलेशिया, सूरीनाम, फिजी, गुयाना, मारिशस, ट्रिनिडाड, टोबेगो और अरब अमीरात जैसे अनेक देशों में बोली जाती हैं फिर भी विडम्बना यह है कि आज तक इसे अन्तर्राष्ट्रीय भाषा का दर्जा नहीं मिल पाया है। इसका प्रमुख कारण भारतीयों में संकल्प की कमी है। अगर हम अपनी भाषा को अपने ही घर में नहीं बोल सकते तो इसे विश्व भाषा का दर्जा क्या दिलवायेंगे?

इस संदर्भ में हम फांसीसी लोगों से बहुत कुछ सीख सकते हैं। वे अपनी मातृभाषा से प्रेम करते हैं और बड़ी मेहनत से विश्व भर में उसका प्रचार करते हैं। उनके यहां फेंच के विकास के लिये एक मंत्री अलग से होता है जिसे फ्रांकोफोन मिनिस्टर कहते हैं।

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अंग्रेज़ी को ही लीजिये लगभग हर देश में अंग्रेजी दूतावास के साथ अग्रेजी शिक्षा का प्रचार विभाग होता है। हमारे विदेशी दूतावासों में ऐसे कितने हिन्दी पत्चार विभाग हैं? क्यों हम अपनी भाषा के विकास में उनका अनुकरण नहीं करते ?

हम इज़राइल जैसे छोटे और नये देश को देखें। 1948 में जब वह स्वतंत्र हुआ था वहां उनकी मातृभाषा हीबू के जानने वाले बहुत कम थे। उन्होंने एक सुनियोजित कार्यक्रम के तहत काम करना शुरू किया और 1995 तक उन्होंने अपनी भाषा का इतना विकास कर लिया कि उच्च शिक्षा तक में इसका प्रयोग-हो सके।

इसी प्रकार 1960 में रूस में दो भाषा सम्प्रदाय थे। एक पर पाश्चत्य प्रभाव था और दूसरी पर स्थानीय स्लोवानिक शब्दों और भाषा रचना का। स्लोवानिक सम्प्रदाय की संरचना कठिन थी और उसका प्रयोग कम होने के कारण उसके जानने वाले कम थे। लेकिन रूस ने एक शिक्षा आन्दोलन चला कर इस समस्या को सुलझा लिया। हमें इससे सीख लेनी चाहिये।

आज तक हम अपने देश में हिन्दी में उच्च शिक्षा का प्रबन्ध नहीं कर सके हैं। हमारे गांवों के बच्चे आज भी मेडिकल कालेजों और इंजिनियरिंग कालेजों में उच्च शिक्षा प्राप्त करने का सपना नहीं देख सकते हैं क्योंकि इनमें शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी है। इस प्रकार न केवल हम अपने देश की जनता के एक बड़े वर्ग को उच्च शिक्षित होने से रोकते हैं बल्कि अपने देश की उन्नति में बाधा भी खड़ी करते हैं। चीन, फांस, जर्मनी आदि देशों के विकास का कारण यह है कि उनके देश में शिक्षा का माध्यम उनकी अपनी भाषा है। उनके देश के विद्यार्थियों को अपना बहुमूल्य समय और मानसिक शक्ति एक विदेशी भाषा सीखने में व्यय नहीं करनी पड़ती।

विख्यात वैज्ञानिक जयन्त नारलीकर जिन्होंने हिन्दी में अनेक उपयोगी पुस्तकें लिखी हैं का मानना है कि "वैज्ञानिक शोध में एक स्थिति वह आती है जब विदेशी भाषा अपर्याप्त साबित होती है। तब हमें मातृभाषा को ही अपनाना पड़ता है।" सच तो यह है कि ऐसे समाज में जहां भाषा और विज्ञान का आपसी संबंध प्रगाढ़ न हो विज्ञान में मौलिकता का विकास हो ही नहीं सकता। रूस, चीन, जापान, फ्रांस और जर्मनी आदि देशों ने अपनी मातृभाषा और वैज्ञानिक विकास के बीच एक क्रमबद्ध तालमेल विकसित किया जिसके कारण इन देशों का तेज़ी से विकास हुआ। हिन्दी में हमें इसी तरह के एक विकास आन्दोलन की आवश्यकता है।

हिन्दी के सिर पर पैर रख कर अंग्रेज़ी की वकालत करने में हमें शर्म आनी चाहिये। टीवी, फिल्म, रेडियो और समाचार पत्रों से हिन्दी को विश्व में अच्छा सम्मान मिला है लेकिन यह देख कर दुख होता है कि इन प्रचार माध्यमों के लोकप्रिय सितारे साक्षात्कार के समय अक्सर अंग्रेज़ी ही बोलते हैं।

कुछ लोगों का तर्क है कि नौकरी के लिये अंग्रेज़ी जानना बहुत ज़रूरी है और इसलिये इसे बिहार में दूसरी अनिवार्य भाषा का दर्जा दे दिया गया है। यह एक हास्यास्पद बात है। एक आकलन के अनुसार 5 प्रतिशत पहले दर्जे की नौकरियों और 15 प्रतिशत दूसरे दर्जे की नौकरियों को छोड़ दें तो तीसरे और चौथे दर्जे की 80 प्रतिशत नौकरियों के लिये अंग्रेजी जानने की कोई ज़रूरत नहीं है। यहां यह गंभीरता से सोचने की बात है कि अंग्रेजी के कारण सेकेन्ड्री परीक्षा में फेल होने वाले सभी छात्र इन तीसरे और चौथे दर्जे की नौकरियों के लिये भी अनुपयुक्त हो जायेंगे। इनके लिये हम नौकरियां कहां से लायेंगे। क्या अंग्रेजी को इतना महत्व देकर हम अपने देश में बेरोजगारी नहीं बढ़ा रहे हैं।

भाषा केवल शिक्षा का माध्यम ही नहीं होती यह संस्कृति का माध्यम भी होती है। अंग्रेज़ी का अंधानुकरण हमें असंगत जीवन शैली और मूल्यों की ओर ले जाता है। इस पकार हम सांस्कृतिक सम्राज्यवाद का सीधा शिकार होते हैं। जिन भारतीय मूल्यों के लिये शहीदों ने प्राणों की बाज़ी लगा कर स्वराज हमे सौंपा था, आज विदेशी भाषा और संस्कृति के प्रेम में ये भारतीय मूल्य हम फिर खतरे में डाल रहे हैं।

हमें कीनिया के उपन्यासकार नागुगी वा धवांगो का अनुकरण करना चाहिये जिन्होने अंग्रेज़ी में लिखना बंद कर के गिकुमु और स्वाहिली जैसी अफ्रीकी भाषाओं में लिखना शुरू कर दिया है। उनका कहना है "एक लेखक का यह मानना कि यूरोपीय भाषा के बिना अफ्रीका नहीं चल सकता उसी प्रकार है जैसे एक राजनीतिज्ञ कहे कि बिना विदेशी शासन के अफ्रीका नहीं चल सकता।"

हिन्दी हर प्रकार से एक सशक्त और सम्पन्न भाषा है। हमे भारत के विकास के लिये, भारतीय संस्कृति के विकास के लिये, और हमारे सांस्कृतिक मूल्यों के विकास के लिये हिन्दी बोलने, लिखने, पढ़ने और इसका प्रत्येक क्षेत्र में विकास करने की आवश्यकता है। 

पूर्णिमा वर्मन

फ़रवरी २०००

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