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शुद्ध बारह भावना जैन | Barah Bhavna badi & choti

पंडित मंगतराय कृत बारह भावना

बंदूँ श्री अरहंत पद, वीतराग विज्ञान।

वरणूँ बारह भावना, जग जीवन हित जान॥ १॥

 

कहाँ गये चक्री जिन जीता, भरत खण्ड सारा।

कहाँ गये वह राम-रु-लक्ष्मण, जिन रावण मारा॥

कहाँ कृष्ण रुक्मणी सतभामा, अरु संपति सगरी।

कहाँ गये वह रंगमहल अरु, सुवरन की नगरी॥ २॥

 

नहीं रहे वह लोभी कौरव, जूझ मरे रण में।

गये राज तज पांडव वन को, अगनि लगी तन में॥

मोह- नींद से उठ रे चेतन, तुझे जगावन को।

हो दयाल उपदेश करैं, गुरु बारह भावन को॥ ३॥

 

अनित्य भावना

सूरज चाँद छिपै निकलै ऋतु, फिर फिर कर आवै।

प्यारी आयु ऐसी बीतै, पता नहीं पावै॥

पर्वत-पतित-नदी-सरिता-जल, बहकर नहिं हटता।

स्वास चलत यों घटै काठ ज्यों, आरे सों कटता॥ ४॥

 

ओस-बूंद ज्यों गले धूप में, वा अंजुलि पानी।

छिन-छिन यौवन छीन होत है, क्या समझै प्रानी॥

इंद्रजाल आकाश नगर सम, जग-संपत्ति सारी।

अथिर रूप संसार विचारो, सब नर अरु नारी॥ ५॥

 

अशरण भावना

काल-सिंह ने मृग- चेतन को घेरा भव वन में।

नहीं बचावन-हारा कोई, यों समझो मन में॥

मंत्र तंत्र सेना धन संपत्ति, राज पाट छूटे।

वश नहिं चलता काल लुटेरा, काय नगरि लूटे॥ ६॥

 

चक्ररत्न हलधर सा भाई, काम नहीं आया।

एक तीर के लगत कृष्ण की विनश गई काया॥

देव धर्म गुरु शरण जगत में, और नहीं कोई

भ्रम से फिरै भटकता चेतन, यूँ ही उमर खोई॥ ७॥

 

संसार भावना

जनम-मरण अरु जरा- रोग से, सदा दु:खी रहता।

द्रव्य क्षेत्र अरु काल भाव भव-परिवर्तन सहता॥

छेदन भेदन नरक पशुगति, वध बंधन सहना।

राग-उदय से दु:ख सुर गति में, कहाँ सुखी रहना॥ ८॥

 

भोगि पुण्य फल हो इक इंद्री, क्या इसमें लाली।

कुतवाली दिन चार वही फिर, खुरपा अरु जाली॥

मानुष-जन्म अनेक विपत्तिमय, कहीं न सुख देखा।

पंचम गति सुख मिले शुभाशुभ को मेटो लेखा॥ ९॥

 

एकत्व भावना

जन्मै मरै अकेला चेतन, सुख-दु:ख का भोगी।

और किसी का क्या इक दिन, यह देह जुदी होगी॥

कमला चलत न पैंड जाय, मरघट तक परिवारा।

अपने अपने सुख को रोवैं, पिता पुत्र दारा॥ १०॥

 

ज्यों मेले में पंथीजन मिल नेह फिरैं धरते।

ज्यों तरुवर पै रैन बसेरा पंछी आ करते॥

कोस कोई दो कोस कोई उड़ फिर थक-थक हारै।

जाय अकेला हंस संग में, कोई न पर मारै॥ ११॥

 

अन्यत्व भावना

मोह-रूप मृग-तृष्णा जग में, मिथ्या जल चमकै।

मृग चेतन नित भ्रम में उठ उठ, दौड़े थक थककै॥

जल नहिं पावै प्राण गमावे, भटक भटक मरता।

वस्तु पराई माने अपनी, भेद नहीं करता॥ १२॥


मृग चेतन नित भ्रम में उठ उठ, दौड़े थक थककै, बारह भावना बड़ी, वंदू श्री अरिहंतपद, कहां गए चक्री जिन जीता, मंगत राय जी कृत, अनित्य भावना, १२ भावना, 12 bhavna badi

तू चेतन अरु देह अचेतन, यह जड़ तू ज्ञानी।

मिले-अनादि यतन तैं बिछुडै, ज्यों पय अरु पानी॥

रूप तुम्हारा सबसों न्यारा, भेद ज्ञान करना।

जौलों पौरुष थकै न तौलों उद्यम सों चरना॥ १३॥

 

अशुचि भावना

तू नित पोखै यह सूखे ज्यों, धोवै त्यों मैली।

निश दिन करे उपाय देह का, रोग-दशा फैली॥

मात-पिता-रज-वीरज मिलकर, बनी देह तेरी।

मांस हाड़ नश लहू राध की, प्रगट व्याधि घेरी॥ १४॥

 

काना पौंडा पड़ा हाथ यह चूसै तो रोवै।

फलै अनंत जु धर्म ध्यान की, भूमि-विषै बोवै॥

केसर चंदन पुष्प सुगन्धित, वस्तु देख सारी।

देह परसते होय, अपावन निशदिन मल जारी॥ १५॥

 

आस्रव भावना

ज्यों सर-जल आवत मोरी त्यों, आस्रव कर्मन को।

दर्वित जीव प्रदेश गहै जब पुद्गल भरमन को॥

भावित आस्रव भाव शुभाशुभ, निशदिन चेतन को।

पाप पुण्य के दोनों करता, कारण बन्धन को॥ १६॥

 

पन-मिथ्यात योग- पन्द्रह द्वादश- अविरत जानो।

पंच रु बीस कषाय मिले सब, सत्तावन मानो॥

मोह- भाव की ममता टारै, पर परिणति खोते।

करै मोख का यतन निरास्रव, ज्ञानी जन होते॥ १७॥

 

संवर भावना

ज्यों मोरी में डाट लगावै, तब जल रुक जाता।

त्यों आस्रव को रोकै संवर, क्यों नहिं मन लाता॥

पंच महाव्रत समिति गुप्तिकर वचन काय मन को।

दशविध-धर्म परीषह-बाईस, बारह भावन को॥ १८॥

 

यह सब भाव सत्तावन मिलकर, आस्रव को खोते।

सुपन दशा से जागो चेतन, कहाँ पड़े सोते॥

भाव शुभाशुभ रहित शुद्ध- भावन- संवर भावै।

डाँट लगत यह नाव पड़ी मझधार पार जावै॥ १९॥

 

निर्जरा भावना

ज्यों सरवर जल रुका सूखता, तपन पड़ै भारी।

संवर रोकै कर्म निर्जरा, ह्वै सोखनहारी॥

उदय-भोग सविपाक-समय, पक जाय आम डाली।

दूजी है अविपाक पकावै, पालविषै माली॥ २०॥

 

पहली सबके होय नहीं, कुछ सरै काज तेरा।

दूजी करै जू उद्यम करकै, मिटे जगत फेरा॥

संवर सहित करो तप प्रानी, मिलै मुकत रानी।

इस दुलहिन की यही सहेली, जानै सब ज्ञानी॥ २१॥

 

लोक भावना

लोक अलोक आकाश माहिं थिर, निराधार जानो।

पुरुष रूप कर- कटी भये षट् द्रव्यन सों मानो॥

इसका कोई न करता हरता, अमिट अनादी है।

जीवरु पुद्गल नाचै यामैं, कर्म उपाधी है॥ २२॥

 

पाप पुण्य सों जीव जगत में, नित सुख दु:ख भरता।

अपनी करनी आप भरै सिर, औरन के धरता॥

मोह कर्म को नाश, मेटकर सब जग की आसा।

निज पद में थिर होय लोक के, शीश करो वासा॥ २३॥

 

बोधि-दुर्लभ भावना

दुर्लभ है निगोद से थावर, अरु त्रस गति पानी।

नर काया को सुरपति तरसै सो दुर्लभ प्रानी

उत्तम देश सुसंगति दुर्लभ, श्रावक कुल पाना।

दुर्लभ सम्यक् दुर्लभ संयम, पंचम गुणठाना॥ २४॥

 

दुर्लभ रत्नत्रय आराधन दीक्षा का धरना।

दुर्लभ मुनिवर के व्रत पालन, शुद्ध भाव करना॥

दुर्लभ से दुर्लभ है चेतन, बोधि ज्ञान पावै।

पाकर केवलज्ञान नहीं फिर, इस भव में आवे॥ २५॥

 

धर्म भावना

धर्म अहिंसा परमो धर्म: ही सच्चा जानो।

जो पर को दुख दे, सुख माने, उसे पतित मानो

राग द्वेष मद मोह घटा आतम रुचि प्रकटावे।

धर्म-पोत पर चढ़ प्राणी भव-सिन्धु पार जावे॥ २६॥

 

वीतराग सर्वज्ञ दोष बिन, श्रीजिन की वानी।

सप्त तत्त्व का वर्णन जामें, सबको सुखदानी॥

इनका चिंतवन बार-बार कर, श्रद्धा उर धरना।

मंगत इसी जतनतैं इकदिन, भव-सागर-तरना॥ २७॥

 

शब्दार्थ 

पंचम गति से तात्पर्य है भगवान की गति

मिले अनादि यतन तैं बिछुडै: हमेशा से मिले हुए हैं परंतु प्रयत्न करने पर अलग-अलग हो सकते हैं

करै मोख का यतन निरास्रव: मोख का अर्थ मोक्ष है

एलक क्षीरसागर जी द्वारा शुद्ध बारह भावना भजन


 PDF Vandu shri Arihant Pad | Barah Bhavna Badi

 

राजा राणा छत्रपति | १२ भावना छोटी

Barah Bhavna

(पं. भूधरदासजी कृत)


अनित्य भावना

राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार ।
मरना सबको एक दिन, अपनी-अपनी बार ।। १ ।। 

अशरण भावना

दल-बल देवी देवता, मात-पिता परिवार । 
मरती बिरियाँ जीव को, कोई न राखन हार ।। २ ।। 

संसार भावना

दाम बिना निर्धन दुःखी, तृष्णावश धनवान । 
कहूँ न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ।। ३ ।। 

एकत्व भावना

आप अकेलो अवतरे, मरे अकेलो होय । 
यूँ कबहूँ इस जीव को, साथी सगा न कोय ।।४ ।। 

अन्यत्व भावना

जहाँ देह अपनी नहीं, तहाँ न अपनो कोय । 
घर संपति पर प्रकट ये, पर हैं परिजन लोय ।।५ ।। 

अशुचि भावना

दिपै चाम चादर मढ़ी, हाड़ पींजरा देह । 
भीतर या सम जगत में, और नहीं घिन गेह ।। ६ ।। 

आस्रव भावना

मोह-नींद के जोर, जगवासी घूमें सदा । 
कर्मचोर चहुँ ओर, सरवस लूटें सुध नहीं ।। ७ ।। 

संवर भावना

सत्गुरु देय जगाय, मोह-नींद जब उपशमै । 
तब कछु बनै उपाय, कर्म-चोर आवत रुकें ।।८ ।। 

निर्जरा भावना

ज्ञान-दीप तप तेल भर, घर शोधै भ्रम छोर । 
या विधि बिन निकसैं नहीं, बैठे पूरब चोर ।। 

पंच महाव्रत संचरन, समिति पंच परकार । 
प्रबल पंच इन्द्रिय-विजय, धार निर्जरा सार ।।९ ।। 

लोक भावना

चौदह राजु उतंग नभ, लोक पुरुष संठान । 
तामें जीव अनादि तैं, भरमत हैं बिन ज्ञान ।। १० ।। 

बोधिदुर्लभ भावना

धन कन कंचन राजसुख, सबहि सुलभ कर जान। 
दुर्लभ है संसार में, एक जथारथ ज्ञान ।।११ ।। 

धर्म भावना

जाँचे सुर तरु देय सुख, चिन्तत चिन्ता रैन । 
बिन जाँचै बिन चिन्तये, धर्म सकल सुख दैन ।। १२ ।।

12 Bhavna writers

Pandit Mangat Ray wrote the long Barah Bhavna. Pandit Bhudhar Das wrote the short version of Barah Bhavna

Barah Bhavna image

Kahan gaye Chakri jin jita Bharat Khand Sara, Raja Rana Chhatrapati Hatin, vandu Shri Arihant pad, 12 bhawna Anitya Bhavna writer

Credits: Vitragvani

Barah Bhavna in English

Bhavna meaning in English is contemplation or self reflection. It is said that what you think, you become. 12 Bhavna helps you to think the truth of life and, how to summarise your life.

Barah Bhavna enlists a group of 12 contemplations.

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