गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढि गढि काढैं खोट।
अंतर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।।
गुरु कुम्हार के भांति है तो शिष्य कुंभ यानी घड़े के भांति। घड़ा बनाने के वक्त कुंभकार घड़े को बाहर की तरफ से पीटता है, परंतु अंदर की तरफ से सहारा देता जाता है। जिससे की घड़ा अत्यंत सुंदर व कड़क बनता है। बिना पीटे हुए घड़ा कुरूप व कच्चा रह जाता है।
अंदर से तो गुरु अपने शिष्य से प्रेम करता है, पर देखने में तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि वह शिष्य पर वार कर रहा हो।
गुरु घड़ी घड़ी शिष्य की बुराइयों को बताता है। शिष्य को तुरंत तो बुरा लगता है, पर गहराई से वह भी यह जानता है कि बिना बुराई निकाले उसका भला नहीं हो पाएगा।
इसलिए कबीर दास जी का यह दोहा बहुत सार्थक है।
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