मणुय-णाइंद-सुर-धरिय-छत्तत्तया,
पंचकल्लाण-सोक्खावली-पत्तया।
दंसणं णाण झाणं अणंतं बलं,
ते जिणा दिंतु अम्हं वरं मंगलं ॥ १ ॥
अर्थ : (मणुयणाइंद-सुर-धरिय-छत्तत्तया ) मनुजेन्द्र / चक्रवर्ती, नागेन्द्र / धरणेन्द्र और सुरेन्द्रों द्वारा जिन पर तीन छत्र लगाये गये हैं तथा (पंचकल्लाण- सोक्खावली -पत्तया) पंचकल्याणकों के सुख समूह को प्राप्त (ते जिणा ) वे जिनवर अरहंत भगवान् (अम्हं) हमारे लिये (वरं मंगलं ) श्रेष्ठ मंगलमय (अणतं दंसणं णाण बलं) अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतबल और(झाणं) उत्कृष्ट शुक्लध्यान को (दिंतु) देवें।
जेहिं झाणग्गि-बाणेहिं अइदड्ढयं,
जम्म-जर-मरण-णयरत्तयं दड्ढयं,
जेहिं पत्तं सिवं सासयं ठाणयं,
ते महं दिंतु सिद्धा वरं णाणयं ॥ २ ॥
अर्थ : (जेहिं) जिन्होंने (झाणग्गि-बाणेहिं) ध्यानरूपी अग्निवाणों द्वारा (अइ-दिड्ढयं ) अत्यन्त दृढ़ ( जम्म- जर मरण-णयरत्तयं) जन्म- जरा / बुढ़ापा और मरणरूपी तीनों नगरों को ( दड्ढयं) जलाया (जेहिं) जिन्होंने (सासयं सिवं) शाश्वत शिव (ठाणयं पत्तं) स्थान को प्राप्त किया (ते सिद्धा) वे सिद्ध भगवान् (महं) मुझे ( वरं णाणयं ) उत्तम ज्ञान को (दिंतु) देवें।
पंचहाचार-पंचग्गि-संसाहया,
बारसंगाइ-सुअ-जलहि-अवगाहया।
मोक्ख-लच्छी महंती महं ते सया,
सूरिणो दिंतु मोक्खं गयासं गया ॥ ३ ॥
अर्थ : (पंचहाचार-पंचग्गि-संसाहया) जो पंचाचार रूपी पंचाग्नि तपों के सम्यक् साधक (बारसंगाइ सुअ-जलहि अवगाहया) द्वादशांग आदि श्रुतरूपी सागर में अवगाहन करने वाले तथा ( गयासं मोक्खं गया) सम्पूर्ण आशाओं परिग्रहों से रहित मोक्ष को प्राप्त (ते सूरिणो) वे आचार्य (महं) मुझे (सया) सदा (महंती मोक्ख लच्छी) महान् मोक्षलक्ष्मी को (दिंतु) देवें।
घोर-संसार-भीमाडवी-काणणे,
तिक्ख-वियराल-णह-पाव-पंचाणणे।
णट्ठ-मग्गाण जीवाण पहदेसिया,
वंदिमो ते उवज्झाय अम्हे सया ॥ ४ ॥
अर्थ : (तिक्ख वियराल णह पाव-पंचाणणे) तीक्ष्ण विकराल नख सहित पैर वाले पापरूपी सिंहों से व्याप्त ( घोर-संसार- भीमाडवी- काणणे) घोर संसाररूपी भयंकर अटवी, बीहड़ वन में ( णट्ठ-मग्गाण) मार्ग भूले हुए (जीवाण) जीवों को जो (पह देसिया ) मार्ग के उपदेशक/ मार्गदर्शक हैं (ते उवज्झाय ) उन उपाध्याय परमेष्ठी की (अम्हे) हम (सया) सदा (वंदिमो) वंदना करते हैं।
उग्ग-तव-चरण-करणेहिं झीणंगया,
धम्म-वर-झाण-सुक्केक्क-झाणं गया।
णिब्भरं तव-सिरीए समालिंगया,
साहवो ते महं मोक्ख-पह-मग्गया ॥ ५॥
अर्थ (उग्ग-तव-चरण करणेहिं) उग्र तपश्चरण तेरह प्रकार का चारित्र और तेरह प्रकार की क्रियाओं के करने से (झीणंगया) क्षीणता को प्राप्त शरीर वाले (धम्मवरझाणसुक्केक्क झाणंगया) धर्मरूप उत्तमध्यान तथा शुक्लरूप मुख्य ध्यान को प्राप्त (तव सिरीए) तपरूपी लक्ष्मी से (णिब्भरं समालिंगया) अत्यन्त आलिंगित ( ते साहवो) वे (महं) मेरे लिए (मोक्ख पह- मग्गया) मोक्षमार्ग के मार्गदर्शक/दिने वाले हों।
एण थोत्तेण जो पंचगुरु वंदए,
गुरुय-संसार-घण-वेल्लि सो छिंदए।
लहइ सो सिद्धि-सोक्खाइं वरमाणणं,
कुणइ कम्मिंधणं-पुंज-पज्जालणं ॥ ६॥
अर्थ : (एण थोत्तेण ) इस स्तोत्र के द्वारा (जो ) जो (पंच-गुरु) पञ्च- गुरुओं/पन्च परमेष्ठियों की (वंदए ) वंदना करता है (सो) वह (गुरुय- संसार-घण वेल्लि) गुरु / भारी/अनन्त संसाररूपी सघन बेल को (छिंदए) काट डालता है और (सो) वह (वरमाणणं) उत्तम जनों के द्वारा मान्य (सिद्धि-सोक्खाइं) मोक्ष के सुखों को (लहइ) प्राप्त होता है तथा (कम्मिंधणं पुंज-पज्जालणं) कर्मरूपी ईंधन के समूह को भस्म (कुणइ) करता है।
अरुहा सिद्धाइरिया उवज्झाया साहु-पंचपरमेट्ठी।
एयाण णमोयारा भवे भवे मम सुहं दिंतु ॥ ७ ॥
अर्थ : (अरुहा) जन्म से रहित अरहंत (सिद्धाइरिया) सिद्ध, आचार्य (उवज्झाया ) उपाध्याय और (साहु) साधु ये (पंच-परमेट्ठी) पाँच परमेष्ठी है (एयाण) इनके (णमोयारा) नमस्कार (मम) मुझे (भवे भवे) भव-भव में (सुहं) सुख को (दिंतु ) देवें।
Comments
Post a Comment