प्रश्नोत्तर रत्न मालिका राजा अमोघवर्ष | Prashnottar Ratna Malika original
प्रश्नोत्तर रत्न मालिका: संस्कृत संस्करण
प्रणिपत्य वर्धमानं प्रश्नोत्तर-रत्नमालिकां वक्ष्ये।
नागनरामरवन्द्यं देवं देवाधिपं वीरम् ॥ १॥
क: खलु नालंक्रियते दृष्टादृष्टार्थ-साधनपटीयान्।
कण्ठस्थितया विमल-प्रश्नोत्तर-रत्नमालिकया॥ २॥
भगवन् कि मुपादेयं गुरुवचनं हेयमपि च किमकार्यम्।
को गुरुरधिगततत्त्व: सत्त्वहिताभ्युद्यत: सततम्॥ ३॥
त्वरितं किं कत्र्तव्यं विदुषा संसार-सन्ततिच्छेद:।
किं मोक्ष तरोर्बीजं सम्यग्ज्ञानं क्रियासहितम् ॥ ४॥
किं पथ्यदनं धर्म: क: शुचिरिह यस्य मानसं शुद्धम्।
क: पण्डितो विवेकी किं विषमवधीरिता गुरव:॥ ५॥
किं संसारे सारं बहुशोऽपि विचिन्त्यमानमिदमेव।
मनुजेषु दृष्टतत्त्वं स्वपरहितायोद्यतं जन्म॥ ६॥
मदिरेव मोहजनक: क: स्नेह: के च दस्यव: विषया:।
का भव वल्ली तृष्णा को वैरी नन्वनुद्योग:॥ ७॥
कस्माद्भयमिह मरणादन्धादपि को विशिष्यते रागी।
क: शूरो यो ललनालोचनवाणै र्न च व्यथित: ॥ ८॥
पातुं कर्णाञ्जलिभि: किममृतमिव बुध्यते सदुपदेश:।
किं गुरुताया मूलं यदेतदप्रार्थनं नाम ॥ ९॥
किं गहनं स्त्रीचरितं कश्चतुरो यो न खण्डितस्तेन।
किं दारिद्र्यमसंतोष एवं किं लाघवं याञ्चा ॥ १०॥
किं जीवितमनवद्यं किं जाड्यं पाटवेऽप्यनभ्यास:।
को जागर्ति विवेकी का निद्रा मूढता जन्तो:॥ ११॥
नलिनीदलगतजललव-तरलं किं यौवनं धनमथायु:।
के शशधरकरनिकरा-नुकारिण: सज्जना एव॥१२॥
को नरक: परवशता किं सौख्यं सर्वसंगविरतिर्या।
किं सत्यं भूतहितं किं प्रेय: प्राणिनामसव:॥१३॥
किं दानमनाकाङ्क्षं किं मित्रं यन्निवर्तयति पापात्।
कोऽलंकार: शीलं, किं वाचां मण्डनं ! सत्यम्॥१४॥
किमनर्थफलं मानसमसंगतं का सुखावहा मैत्री।
सर्वव्यसनविनाशे को दक्ष: सर्वथा त्याग:॥ १५॥
कोऽन्धो योऽकार्यरत: को बधिरो य: शृणोति न हितानि।
को मूको य: काले प्रियाणि वक्तुं न जानाति॥ १६॥
किं मरणं मूर्खत्वं किं चानर्घ्यं यदवसरे दत्तम्।
आमरणात्किं शल्यं प्रच्छन्नं यत्कृतमकार्यम्॥ १७॥
कुत्र विधेयो यत्नो विद्याभ्यासे सदौषधे दाने।
अवधीरणा क्व कार्या खल परयोषित्परधनेषु॥ १८॥
काहर्निशमनुचिन्त्या संसारासारता न च प्रमदा।
का प्रेयसी विधेया करुणादाक्षिण्यमपि मैत्री॥ १९॥
कण्ठगतैरप्यसुभि: कस्यात्मा नो समप्र्यते जातु।
मूर्खस्य विषादस्य च गर्वस्य तथा कृतघ्नस्य॥ २०॥
क: पूज्य: सद्वृत्त: कमधनमाचक्षते चलितवृत्तम्।
केन जितं जगमेतत् सत्यतितिक्षावता पुंसा॥ २१॥
कस्मै नम: सुरैरपि सुतरां क्रियते दयाप्रधानाय।
कस्मादुद्विजितव्यं संसारारण्यत: सुधिया॥ २२॥
कस्य वशे प्राणिगण: सत्यप्रियभाषिणो विनीतस्य।
क्व स्थातव्यं न्याय्ये पथि दृष्टादृष्टलाभाय॥ २३॥
विद्युत्विलसितचपलं किं दुर्जनं संगतं युवतयश्च।
कुलशैलनिष्प्रकम्पा: के कलिकालेऽपि सत्पुरुष:॥ २४॥
किं शोच्यं कार्पण्यं सति विभवे किं प्रशस्यमौदार्यम्।
तनुतरवित्तस्य तथा प्रभविष्णोर्यत्सहिष्णुत्वम्॥ २५॥
चिन्तामणिरिव दुर्लभ-मिह ननु कथयामि चतुर्भद्रम्।
किं तद्वदन्ति भूयो विधूत तमसो विशेषेण॥ २६॥
दानं प्रियवाक्सहितं ज्ञानमगर्वं क्षमान्वितं शौर्यम्।
त्यागसहितं च वित्तं दुर्लभमेतच्चतुर्भद्रम् ॥ २७॥
इति कण्ठगता विमला प्रश्नोत्तर-रत्नमालिका येषाम्।
ते मुक्ताभरणा अपि विभान्ति विद्वत्समाजेषु॥ २८॥
विवेकात्यक्तराज्येन राज्ञेयं रत्नमालिका।
रचितोऽमोघवर्षेण सुधियां सदलंकृति:॥ २९॥
प्रश्नोत्तर रत्न मालिका: हिंदी अनुवाद
प्रणिपत्य वर्धमानं प्रश्नोत्तर-रत्नमालिकां वक्ष्ये।
नागनरामरवन्द्यं देवं देवाधिपं वीरम् ॥ १॥
(नागनरामरवन्द्यं) नागेन्द्र, मनुष्य और देवों से वंदनीय (देवं ) स्वयं देवस्वरूप (देवाधिपम् ) देवों के अधिपति (वीरम् ) वीर (वर्द्धमानं ) वर्द्धमान भगवान् को (प्रणिपत्य ) नमस्कार करके (प्रश्नोत्तर रत्नमालिकां ) प्रश्नोत्तर रत्नमालिका को (वक्ष्ये) कहूँगा ।
क: खलु नालंक्रियते दृष्टादृष्टार्थ-साधनपटीयान्।
कण्ठस्थितया विमल-प्रश्नोत्तर-रत्नमालिकया॥ २॥
( कण्ठस्थितया ) कण्ठ में स्थित (विमल प्रश्नोत्तररत्नमालिकया) अच्छे प्रश्न-उत्तर की रत्नमाला से (दृष्टा- दृष्टार्थ साधनपटीयान् ) दृष्ट और अदृष्ट अर्थ को साधने में प्रवीण (कः ) कौन व्यक्ति ( न खलु अलंक्रियते ) विभूषित नहीं होगा? अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति होगा।
भगवन् किमुपादेयं गुरुवचनं हेयमपि च किमकार्यम्।
को गुरुरधिगततत्त्व: सत्त्वहिताभ्युद्यत: सततम्॥ ३॥
( भगवन् ) हे भगवन्! (किम्) क्या ( उपादेयम्) उपादेय है? (गुरुवचनम् ) गुरु वचन उपादेय हैं (च) और (हेयम् अपि) हेय भी (किम् ) क्या है? (अकार्यम्) नहीं करने योग्य कार्य हेय हैं (गुरुः ) गुरु (कः ) कौन है ? ( अधिगत तत्त्वः ) जिसने तत्त्वों को समझ लिया है, वह तथा ( सततम् ) जो निरंतर ( सत्त्व हिताभ्युद्यतः ) सभी प्राणियों के हित में लगा रहता है।
त्वरितं किं कर्त्तव्यम् विदुषा संसार-सन्ततिच्छेद:।
किं मोक्षतरोर्बीजं सम्यग्ज्ञानं क्रियासहितम् ॥ ४॥
(विदुषा) बुद्धिमान व्यक्ति के द्वारा ( त्वरितं ) शीघ्र (किम् ) क्या ( कर्त्तव्यम्) करना चाहिए? (संसार सन्ततिच्छेदः) संसार सन्तति का छेद करना चाहिए ( मोक्ष तरोः ) मोक्ष रूपी वृक्ष का (बीजम् ) बीज (किम् ) क्या है? (सम्यग्ज्ञानम्) वह सम्यग्ज्ञान जो (क्रिया सहितम् ) क्रिया से सहित है।
किं पथ्यदनं धर्म: क: शुचिरिह यस्य मानसं शुद्धम्।
क: पण्डितो विवेकी किं विषमवधीरिता: गुरव:॥ ५॥
(पथि) मार्ग में (अदनम् ) भोजन (किम् ) क्या है ? ( धर्म: ) धर्म है। (इह ) इहलोक में (शुचि: ) पवित्र (कः ) कौन है ? (यस्य ) जिसका ( मानसं शुद्धम् ) मानस शुद्ध है। ( कः पण्डितः ) पण्डित कौन है विवेकी जीव, (किं विषम्) जहर क्या है? ( गुरवः अवधीरिताः ) गुरुओं का तिरस्कार।
किं संसारे सारं बहुशोऽपि विचिन्त्यमानमिदमेव।
मनुजेषु दृष्टतत्त्वं स्वपरहितायोद्यतं जन्म॥ ६॥
(संसारे) संसार में (सारं किम् ) सार क्या है? (बहुशः अपि) बहुत बार भी ( विचिन्त्यमानम् ) चिन्तन करते हुए (इदम् एव ) यह ही है कि ( मनुजेषु ) मनुष्यों में (दृष्ट तत्त्वम् ) तत्त्व को देखना तथा ( स्व पर हिताय ) स्व-पर हित के लिए (उद्यतं जन्म) यह जीवन उद्यत रहना ।
मदिरेव मोहजनक: क: स्नेह: के च दस्यवो विषया:।
का भववल्ली तृष्णा को वैरी नन्वनुद्योग:॥ ७॥
( मदिरा इव) मदिरा के समान ( मोहजनकः ) मोह उत्पन्न करने वाला (कः ) कौन है? (स्नेहः ) स्नेह है। ( के च दस्यवः) और लुटेरे कौन हैं? (विषयाः ) विषय हैं। ( भववल्ली ) संसार की लता (का) क्या है ? (तृष्णा) तृष्णा है ( वैरी कः ) कौन वैरी है (ननु ) वास्तव में (अनुद्योगः ) पुरुषार्थ नहीं करना ही अपना दुश्मन है।
कस्माद्भयमिह मरणादन्धादपि को विशिष्यते रागी।
क: शूरो यो ललनालोचनवाणै र्न च व्यथित: ॥ ८॥
( इह ) इस लोक में ( कस्मात् भयम् ) भय किससे है ? (मरणात् ) मरण से है। (अन्धात् अपि) अंधे से भी (कः ) कौन ( विशिष्यते) बढ़कर है? (रागी) रागी जीव। (कः शूरः ) शूर कौन है ? (यः) जो ( ललना - लोचन - वाणैः ) स्त्री के नेत्र रूपी वाणों से ( न च व्यथितः ) पीड़ित नहीं हुआ।
पातुं कर्णाञ्जलिभि: किममृतमिव बुध्यते सदुपदेश:।
किं गुरुताया मूलं यदेतदप्रार्थनं नाम ॥ ९॥
(कर्णाञ्जलिभिः ) कर्ण रूपी अञ्जलि से (पातुम् ) पीने के लिए (अमृतम् इव) अमृत के समान (किम् बुध्यते ) क्या जाना जाता है (सदुपदेशः ) सदुपदेश। ( गुरुताया: मूलम् ) बड़प्पन का मूल कारण (किम् ) क्या है? ( यत् एतत् ) जो यह (अप्रार्थनम् नाम ) अयाचना है।
किं गहनं स्त्रीचरितं कश्चतुरो यो न खण्डितस्तेन।
किं दारिद्र्यमसंतोष एवं किं लाघवं याञ्चा ॥ १०॥
(किं गहनम् ) गहन क्या है ? ( स्त्री चरितम् ) स्त्री का चरित्र ( कः चतुरः ) कौन चतुर है (यः) जो ( तेन) उस स्त्री के चरित्र से ( न खण्डितः ) टूटा नहीं ( का दारिद्रयम् ) दरिद्रता क्या है ? (असंतोष: ) असंतोष है ( एवं ) इसी प्रकार (किं लाघवम् ) लघुता क्या है ? (याञ्चा) याचना ।
किं जीवितमनवद्यं किं जाड्यं पाटवेऽप्यनभ्यास:।
को जागर्ति विवेकी का निद्रा मूढता जन्तो:॥ ११॥
(किं जीवितम्) जीवन क्या है ? (अनवद्यम्) दूषण रहित होना। ( जाड्यं किम् ) जड़ता क्या है? ( पाटवे अपि अनभ्यासः ) चतुर होने पर भी अभ्यास नहीं करना । ( कः जागर्ति ) कौन जाग्रत है? (विवेकी) विवेकी जीव। (का निद्रा ) निद्रा क्या है? (जन्तोः) प्राणी की ( मूढता) मूढ़ता।
नलिनीदलगतजललवतरलं किं यौवनं धनमथायु:।
के शशधरकरनिकरा-नुकारिण: सज्जना एव॥१२॥
( नलिनी - दलगत जल-लव-तरलम् ) कमल के पत्ते पर छोटी बूँदों के समान क्षणभंगुर (किम्) क्या है? ( यौवनम् ) यौवन (धनम् ) धन (अथ ) और (आयुः) आयु है। (शश-धर- कर-निकरा - नुकारिणः ) चन्द्रमा की किरणों के समूहों का अनुकरण करने वाले (के) कौन हैं? (सज्जना एव) सज्जन पुरुष ही हैं।
को नरक: परवशता किं सौख्यं सर्वसंगविरतिर्या।
किं सत्यं भूतहितं किं प्रेय: प्राणिनामसव:॥१३॥
(क: नरकः ) नरक क्या है? (परवशता ) पराधीन होना। (सौख्यं किम् ) सुख क्या है? (या) जो (सर्व-संग - विरति:) समस्त परिग्रह से विरति है, वह सुख है। (सत्यं किम् ) सत्य क्या है ? (भूतहितम् ) प्राणियों का हित करना। (प्रेयः किम् ) प्रिय वस्तु क्या है ? ( प्राणिनाम् असव ) प्राणियों को अपने प्राण ।
किं दानमनाकाङ्क्षं किं मित्रं यन्निवर्तयति पापात्।
कोऽलंकार: शीलं, किं वाचां मण्डनं ! सत्यम्॥१४॥
(दानं किम्) दान क्या है? (अनाकाङ्क्षम् ) आकांक्षा से रहित होकर देना ही दान है। (मित्रं किम् ) मित्र कौन है? ( यत् पापात् ) जो पाप से (निवर्तयति) रोकता है। ( अलंकारः कः ) आभूषण क्या है? ( शीलम् ) शील है। (वाचा) वचनों का ( मण्डनं किम् ) आभूषण क्या है? (सत्यम् ) सत्य है ।
किमनर्थफलं मानसमसंगतं का सुखावहा मैत्री।
सर्वव्यसनविनाशे को दक्ष: सर्वथा त्याग:॥ १५॥
(अनर्थ फलम् किम् ) अनर्थ का फल क्या है? (असंगतं मानसम् ) असंगत मानस होना ( सुखावहा का ) सुख देने वाली चीज क्या है? (मैत्री) मैत्री भावना ( सर्व व्यसन विनाशे ) समस्त दुःखों के नाश में (कः दक्षः ) कौन समर्थ है ? (सर्वथा त्यागः ) सर्व प्रकार से त्याग करना।
कोऽन्धो योऽकार्यरत: को बधिरो य: शृणोति न हितानि।
को मूको य: काले प्रियाणि वक्तुं न जानाति॥ १६॥
( अन्धः कः ) अन्धा कौन हैं ? ( यः ) जो ( अकार्यरतः ) नहीं योग्य कार्य में लगा है। (क: बधिरः ) बहरा कौन है ? (यः) जो (हितानि ) हित को ( न शृणोति ) नहीं सुनता है। (क) कौन (मूक) गूंगा है ? (य: ) जो (काले ) समय पर ( प्रियाणि वक्तुम्) प्रिय बोलना ( न जानाति ) नहीं जानता है।
किं मरणं मूर्खत्वं किं चानघ्र्यं यदवसरे दत्तम्।
आमरणात्किं शल्यं प्रच्छन्नं यत्कृतमकार्यम्॥ १७॥
( मरणम् किम् ) मरण क्या है? (मूर्खत्वम्) मूर्खपना (च) और ( अनर्घ्यम् किम् ) बहुमूल्य क्या है? ( यदवसरेदत्तम् ) जो अवसर पर दिया जाय ( आमरणात् किं शल्यम् ) मरण समय तक शल्य क्या है? ( यत् अकार्यम् ) जो नहीं करने योग्य कार्य (प्रच्छन्नं कृतम्) गुप्त रीति से किया गया हो।
कुत्र विधेयो यत्नो विद्याभ्यासे सदौषधे दाने।
अवधीरणा क्व कार्या खल परयोषित्परधनेषु॥ १८॥
( यत्नः ) प्रयत्न (कुत्र) कहाँ (विधेयः ) करना चाहिए (विद्याभ्यासे) विद्या के अभ्यास में (सदा) तथा हमेशा ( औषधे दाने) औषध दान में। (क्व) कहाँ (अवधीरणा) अनादर (कार्या ) करना चाहिए? (खल- परयोषित् - परधनेषु) दुष्ट, परस्त्री और पर धन में।
काहर्निशमनुचिन्त्या संसारासारता न च प्रमदा।
का प्रेयसी विधेया करुणादाक्षिण्यमपि मैत्री॥ १९॥
(अहर्निशम् ) रात-दिन (का) क्या (अनुचिन्त्या ) चिन्तन करना चाहिए? ( संसारासारता) संसार की असारता का ( नच प्रमदा) स्त्री का नहीं। ( का प्रेयसी विधेया) किसे प्रेमिका बनाना चाहिए? (करुणा- दाक्षिण्यम् अपि) करुणा, नम्रता और (मैत्री) मैत्री भाव को ।
कण्ठगतैरप्यसुभि: कस्यात्मा नो समप्र्यते जातु।
मूर्खस्य विषादस्य च गर्वस्य तथा कृतघ्नस्य॥ २०॥
( कण्ठ गतैः असुभिः अपि ) कण्ठगत प्राण होने पर भी ( आत्मा ) अपने को (कस्य ) किसे (जातु न ) कभी भी ( समर्प्यते) समर्पित (न) नहीं करना चाहिए? ( मूर्खस्य ) मूर्ख को (विषादस्य च ) खेद - खिन्न पुरुष को (गर्वस्य ) घमण्डी को (तथा) तथा (कृतघ्नस्य) कृतघ्न को ।
क: पूज्य: सद्वृत्त: कमधनमाचक्षते चलितवृत्तम्।
केन जितं जगमेतत् सत्यतितिक्षावता पुंसा॥ २१॥
( पूज्यः कः ) पूज्य कौन है? (सद्वृत्तः ) सम्यक्चारित्र वाला। ( अधनम् कम आचक्षते ) निर्धन किसे कहते हैं ? ( चलितवृत्तम् ) जिसका चारित्र अस्थिर है। (केन जितम् एतत् जगत् ) यह संसार किसने जीता? (सत्य- तितिक्षावता पुंसा ) सत्य और सहनशील पुरुष ने ।
कस्मै नम: सुरैरपि सुतरां क्रियते दयाप्रधानाय।
कस्मादुद्विजितव्यं संसारारण्यत: सुधिया॥ २२॥
(सुरैः अपि ) देवों के द्वारा ( कस्मै ) किसके लिए (सुतराम्) अच्छी तरह ( नमः क्रियते ) नमस्कार किया जाता है? (दया प्रधानाय ) दया प्रधान पुरुष के लिए (सुधिया ) बुद्धिमान को ( कस्मात् ) किससे ( उद्विजितव्यम् ) दूर होना चाहिए? (संसारारण्यतः ) संसार रूपी जंगल से।
कस्य वशे प्राणिगण: सत्यप्रियभाषिणो विनीतस्य।
क्व स्थातव्यं न्याय्ये पथि दृष्टादृष्टलाभाय॥ २३॥
(प्राणिगण:) प्राणी (कस्य ) किसके ( वशे) वश में होते हैं। (सत्य-प्रिय भाषिणः ) सत्य और प्रिय बोलने वाले के तथा (विनीतस्य) विनीत पुरुष के (दृष्टादृष्टलाभाय ) दृष्ट- अदृष्ट लाभ के लिए (क्व) कहाँ (स्थातव्यम्) रहना चाहिए? ( न्याय्ये पथि) न्याय पथ में।
विद्युविलसितचपलं किं दुर्जनं संगतं युवतयश्च।
कुलशैलनिष्प्रकम्पा: के कलिकालेऽपि सत्पुरुष:॥ २४॥
(विद्युत् विलसितचपलम् किम् ) बिजली के समान चंचल क्या है? (दुर्जनम् संगतम्) दुर्जन के साथ मैत्री (च) तथा ( युवतयः) स्त्रियाँ हैं। (कलिकाले अपि) कलिकाल में भी ( कुलशैल- निष्प्रकम्पा: के) कुलाचल पर्वत के समान निश्चल कौन है? (सत्पुरुषः) सज्जन पुरुष हैं।
किं शोच्यं कार्पण्यं सति विभवे किं प्रशस्यमौदार्यम्।
तनुतरवित्तस्य तथा प्रभविष्णोर्यत्सहिष्णुत्वम्॥ २५॥
(किं शौच्यम्) शोचनीय क्या है? ( कार्पण्यम्) कृपणता ( सति विभवे किं प्रशस्यम्) वैभव होने पर भी क्या प्रशंसनीय हैं (औदार्यम् ) उदारता (तनुतर वित्तस्य ) निर्धन को भी क्या प्रशंसनीय है। (तथा) वही उदारता ( प्रभविष्णोः ) समर्थ पुरुष को क्या प्रशंसनीय है । (यत् सहिष्णुत्वम् ) जो सहनशीलता है।
चिन्तामणिरिव दुर्लभ-मिह ननु कथयामि चतुर्भद्रम्।
किं तद्वदन्ति भूयो विधूत तमसो विशेषेण॥ २६॥
दानं प्रियवाक्सहितं ज्ञानमगर्वं क्षमान्वितं शौर्यम्।
त्यागसहितं च वित्तं दुर्लभमेतच्चतुर्भद्रम् ॥ २७॥
( चिन्तामणिः इव दुर्लभम् ) चिन्तामणि रत्न के समान दुर्लभ (इह ) इस संसार में (किम् ) क्या है ? ( ननु ) निश्चय से (चतुर्भद्रम्) चार भद्र चीजें हैं। ( विधूततमसः ) अज्ञान अंधकार से रहित जन (विशेषण) विशेष रूप से (तद् वदन्ति ) उसी का कथन (भूयः ) खूब करते हैं ( कथयामि ) उसी को मैं कहता हूँ । (प्रियवाक्यसहितम्) प्रिय वचनों के साथ ( दानम्) दान, (अगर्व) गर्व रहित (ज्ञानम् ) ज्ञान, (क्षमान्वितम् ) क्षमा सहित (शौर्यम् ) शौर्य (च) और (त्याग सहितम्) त्याग के साथ (वितम् ) धन ( एतत् ) यह (चतुर्भद्रम् ) चार कल्याणप्रद चीजें (दुर्लभम् ) दुर्लभ हैं।
इति कण्ठगता विमला प्रश्नोत्तर-रत्नमालिका येषाम्।
ते मुक्ताभरणा अपि विभान्ति विद्वत्समाजेषु॥ २८॥
विवेकात्यक्तराज्येन राज्ञेयं रत्नमालिका।
रचितोऽमोघवर्षेण सुधियां सदलंकृति:॥ २९॥
(इति) इस प्रकार ( येषाम् ) जिन व्यक्तियों को (विमला ) यह निर्मल (प्रश्नोत्तर - रत्नमालिका) प्रश्नोत्तर रत्नमाला (कण्ठगता) कण्ठगत हो जाती है (ते) वे लोग (मुक्ताभरणा: अपि ) आभरण से रहित होते हुए भी ( विद्वत्समाजेषु ) विद्वानों की सभा में (विभान्ति) सुशोभित होते हैं। (विवेकात्) विवेक से ( त्यक्त राज्येन ) जिन्होंने राज्य छोड़ दिया हैं ( राज्ञा ) उस राजा (अमोघवर्षेण) अमोघवर्ष के द्वारा (सुधियाम्) बुद्धिमानों के लिए ( सत् अलंकृतिः) उत्तम आभूषण रूप (इयम्) यह कृति ( रचिता ) रची है।
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