जैन धर्म में ज्यादातर लोग यह मानते हैं, ऐसी शिक्षा देते हैं कि या तो तुम मनुष्य साधु बन सकते हो या श्रावक। पर यह शिक्षा अधूरी है।
माता-पिता एवं गुरू ऐसी शिक्षा ना दें। मैंने दिनांक १० मार्च २०२२ को मनुष्य का तीसरा रूप भी पढ़ा है। यह मैंने शांति पथ प्रदर्शन के साधना खंड में पढ़ा। ज्यादातर माता-पिता अपनी श्रेणी ही भूल जाते हैं। वे अपने आप को जल्दी श्रावक मानने लगते हैं। वे शुरू में श्रावक नहीं होते हैं। अंत में बन जरूर सकते हैं। माता-पिता ग्रहस्थ होते हैं।
तो यही है मनुष्य की तीसरी श्रेणी: गृहस्थ।
शायद गृहस्थ, श्रावक और साधु के बीच का अंतर यह हो सकता है:
ग्रहस्थ: बंधन में पढ़ा हो और उसे अच्छा मानता हो।
श्रावक: बंधन में पढ़ा हो और उसे बुरा मानता हो।
साधु: बंधन में ना पढ़ने का सतत् प्रयास करता हो।
यह मेरा मत है। और मेरे तजुर्बे के अनुसार अधूरा हो सकता है। ऐसा तो नहीं कह सकता हूं कि यही सत्य है।
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