आचार्य कुंदकुंद स्वामी ने कहा है:
दानं पूजा मुक्खो सावय धम्मो ण सावया तेण विणा
अर्थात श्रावक के धर्म में पूजा और दान ये दो क्रियाएं मुख्य है।
इनके बिना गृहस्थ श्रावक नहीं हो सकता है !
वैसे तो श्रावक के छह आवश्यक बताए गए हैं। जो निम्न प्रकार हैं:
देव पूजा: प्रभु के गुणों का स्मरण उनके स्वरूप से अपने स्वरूप की तुलना करो पर विकल्प छोड़कर केवलज्ञान प्रकाश स्वरूप को जानो सो दर्शन है।
गुरु उपासना: गुरुओं का सत्संग करो । उनसे कोई शिक्षा लो, यह गुरु उपासना है।
स्वाध्याय: एकचित्त होकर किसी एक ग्रंथ का विधिपूर्वक क्रम से स्वाध्याय करो।
संयम: जो सुगमता से घर पर खाने को मिले उस पर संतोष रहे और अपने आपमें इच्छा न बनाओ कि मैं भी कोई भोग भोगूं, यही संयम है। और कोई इच्छा होती हो तो तुरंत उसके खिलाफ बन जावो । खीर खाने की इच्छा हुई तो खीर का त्याग है। इसी प्रकार अपने मन का नियंत्रण करने की कोशिश करो।
तप: गृहस्थ के सबसे बड़े तप तो दो ही हैं कि १)जो पुण्योदय से मिला उसमें ही दान पुण्य कर लो, अपने खाने पीने का विभाग रखो, कर्ज लेकर न खावो स्वाद के लोभ में आकर खर्च मत बढ़ावो । सात्विक रहन सहन में रहो । ज्यादा पैसा है तो परोपकार करो। २)जो-जो तुम्हें मिला है उसमें यह विश्वास रखो कि ये सब मिट जाने वाली चीजें हैं, ये ही तो बड़े तप है।
दान: अपने कुटुंब पर जितना खर्च होता है कम से कम उतना खर्च तो दुनियां के और सब जीवों में करो। सारा श्रम केवल माने हुए घर के चार जीवों पर होता है तो यह मोह नहीं है तो और क्या है? और जीवों को भी तो देखो, सबका स्वरूप एक है।
तो इसी प्रकार अपनी शक्ति माफिक धर्म काम करते हुए अपने इस जीवन को धर्मयुक्त बनाओ।
-छुल्लक श्री गणेश प्रसाद जी वर्णी
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