यह कहानी है एक बाघ की। पर उस बाघ का रंग न तो सुनहरी-संतरी था और न ही उस पर काली धारियां थीं। और तो और वह बाघ जंगल में भी नहीं रहता था। यह कहानी है टीपू सुल्तान की जिसे मैसूर का बाघ कहा जाता है। उसे बाघ क्यों कहा जाता है? यह जानने के लिए बस पढ़ते जाइये।
टीपू सुल्तान करीब 200 साल पहले राज्य करता था। उसकी राजधानी श्रीरंगपट्टण थी। श्रीरंगपट्टण एक द्वीप था जो बंगलौर और मैसूर के बीच कावेरी नदी की उपनदियों से बना था। वहां से वह मैसूर पर राज्य करता था। उसका राज्य उत्तर में कृष्णा नदी से दक्षिण में डिंडिगुल तक और पश्चिम में मालाबार से लेकर पूर्व में पूर्वी घाट की ढलानों तक फैला हुआ था।
आज मैसूर कर्नाटक राज्य के एक शहर का नाम है। डिंडिगुल तमिलनाडू में है और मालाबार केरल का हिस्सा है।
मजे की बात है कि टीपू एक धर्मप्रचारक बनने वाला था।
टीपू के पिता, हैदर अली ने कभी सपने में भी मैसूर का राजा बनने की नहीं सोची थी। वह तो सिर्फ एक सैनिक था और मैसूर पर वोड्यार परिवार का शासन था। पर अचानक वोड्यार राजा ने अपना राज्य दो चालाक भाइयों- देवराज और नंजराज के हाथों खो दिया। परंतु दोनों भाई आपस में भी लड़ने लगे और उनकी कीर्ति व कहानी का जल्दी ही अंत हो गया। तब हैदर ने क्या किया? वह वहां का राजा बन गया। उस समय टीपू करीब ग्यारह वर्ष का था।
हैदर और उसकी पत्नी फक्र-उन-निसा को बहुत समय तक कोई संतान नहीं हुई। इस बात से दुखी, वे बच्चे के लिए प्रार्थना करने आरकोट नामक स्थान पर स्थित पीर बाबा टीपू मस्तान औलिया की दरगाह पर गये। आरकोट अब तमिलनाडू में है। उन्होंने मन्नत मांगी कि वे अपनी पहली संतान को अल्लाह के हवाले कर देंगे।
उनकी प्रार्थनाएं फलीं और 20 नवंबर 1750 को टीपू का जन्म हुआ। अपनी मन्नत के अनुसार उन्होंने टीपू को धार्मिक ग्रंथ और महत्वपूर्ण पुस्तकों की शिक्षा दिलवाने के लिए मौलवियों और अन्य विद्वानों को बुलवाया। पर टीपू तो एक सिपाही का बेटा था। उसने घुड़सवारी, तैराकी, तलवार चलाना और मलयुद्ध भी सीखा।
जब टीपू पांच वर्ष का था तो उसके भाई अब्दुल करीम का जन्म हुआ। "यह तो बहुत अच्छा हुआ," हैदर ने अपनी पत्नी से कहा। “अब अब्दुल सिंहासन पर बैठेगा और टीपू अल्लाह का बंदा बनेगा।"
परंतु अब्दुल बहुत कमजोर था वह राज्य का कामकाज कैसे देखेगा?
हैदर ने कुछ दिनों तक सोचा और फिर टीपू को अपने सेनापति गाज़ी खान के पास ले गया। "इस बच्चे को सैनिक बना दो। तुम्हें इसे निडर और बलवान बनाना है। मेरे बाद टीपू ही राजा बनेगा। उसने घोषणा की।" उस समय टीपू बारह वर्ष का था।
टीपू बचपन से ही निडर था। एक बार जब वह केवल दस वर्ष और अब्दुल पांच वर्ष का था तो किसी ने हैदर को मारना चाहा। उस समय हैदर केवल एक सैनिक ही था। वह तो बचकर बंगलौर चला गया पर उसके दुश्मनों ने टीपू और अब्दुल को एक मीनार में बंदी बना लिया। अपने छोटे भाई को दिलासा देते हुए भी टीपू का दिमाग वहां से बाहर निकलने का उपाय सोच रहा था। अचानक उसे छत के पास एक छोटा सा रोशनदान दिखाई दिया। उसकी खुशी का कोई ठिकाना न रहा।
किसी तरह दीवार पर चढ़ कर उसने अपने पिता के साथियों को संकेत दिया। कुछ ही घंटों के भीतर दोनों भाइयों को छुड़ा लिया गया।
जैसे-जैसे टीपू बड़ा हुआ, उसकी प्रसिद्धी भी बढ़ती गयी। उसने कई लड़ाइयों का सफल नेतृत्व किया और हैदर की अपने राज्य का विस्तार करने में सहायता की। कई लोग उससे घबराते थे।
टीपू का चिह्न बाघ था। बाघ की संतरी और काली धारियां उसके ध्वजों और पताकाओं की शोभा थीं। उसके सिंहासन, तलवारों और तोपों पर बाघ का सिर बना हुआ था।
लेकिन उसे बाघ इतना पसंद क्यों था? किसी को भी ठीक से नहीं मालूम। टीपू और अब्दुल को मीनार से छुड़ाने के बाद लाल मियां नामक सैनिक के घर पर कई दिनों तक छुपा कर रखा गया था। दोनों भाई लाल मियां के बच्चों रुकैय्या बानो और बुरहान -उद- दीन के साथ घुल-मिल गये थे। जंगली जानवरों के मुखौटे लगा कर एक दूसरे के पीछे भागना उनका प्रिय खेल था। लगता है कि टीपू हमेशा वाघ का मुखौटा लगाया करता था। जब टीपू तेईस वर्ष का था तो उसने रुकैय्या से विवाह कर लिया।
हैदर अली की 1782 में मृत्यु हो गयी और टीपू मैसूर का राजा बन गया।
टीपू को अंग्रेजों के पुराने शत्रु फ्रांसीसियों का समर्थन प्राप्त था। लाल कोटों वाले अंग्रेज टीपू के भी शत्रु थे। वे सत्रहवीं शताब्दी में ईस्ट इंडिया कंपनी के रूप में व्यापार करने आये थे। जब 1786 में चार्ल्स कार्नवालिस गवर्नर जनरल बन कर भारत आया तो भारतीय उपमहाद्वीप पर अंग्रेजों का शासन था। लगभग सारा दक्षिण भारत उनके राज्य का हिस्सा बन चुका था। केवल मैसूर माथा उठाए अभी तक स्वतंत्र था।
“मैं भी देखता हूं तुम कब तक दहाड़ोगे, टीपू।” कार्नवालिस ने कहा जब उसके कमांडरों ने उसे बाघ की बहादुरी के बारे में बताया। कर्नाटक का नवाब और हैदराबाद का निजाम पहले ही खुशी से अंग्रेजों की जी हजूरी कर रहे थे। फिर टीपू क्यों नहीं ?
इसलिए अंग्रेजों ने एक योजना बनाई। उन्होंने ट्रावनकोर के साथ मित्रता की संधि कर ली। ट्रावनकोर मालाबार का अकेला ऐसा राज्य था जो टीपू के अधीन नहीं था। उत्तर में ताकतवर मराठों का समर्थन उन्हें पहले से प्राप्त था।
जब टीपू ने ट्रावनकोर पर आक्रमण किया तो वह अंग्रेजों के जाल में फंस गया। अंग्रेजों की सेना, मराठों और निज़ाम की मदद के साथ वहीं पहुंच गयी। मैसूर पहले भी उनसे दो युद्ध कर चुका था। यह उनका तीसरा युद्ध था। इस युद्ध में टीपू की पराजय हुई और उसे 1792 में सेरिंगापाटम की संधि पर हस्ताक्षर करने पर बाध्य किया गया। अंग्रेज श्रीरंगपट्टण को सेरिंगापाटम कहा करते थे। दुर्भाग्य से फ्रांसीसी भी टीपू की मदद करने नहीं आये क्योंकि वे अंग्रेजों के साथ शांति संधि पर हस्ताक्षर कर चुके थे।
सजा के रूप में टीपू को तीन करोड़ रुपये का हर्जाना एक वर्ष के भीतर अंग्रेजों को देना था। उसे लगभग अपना आधा राज्य भी खोना पड़ा। “मैं उसके दो पुत्रों को बंधक बना कर रखूंगा," कार्नवालिस ने टीपू के प्रतिनिधियों से कहा। वह निश्चित कर लेना चाहता था कि टीपू संधि की शर्तों को पूरा करता है या नहीं। यह टीपू के लिए बहुत दुखद समय था श्रीरंगपट्टण पर चढ़ाई के समय रुकेय्या की मृत्यु हो गयी थी। टीपू ने एक वर्ष के भीतर ही हर्जाना दे दिया था पर कार्नवालिस ने अब्दुल खालिक और मुइज़ उद दीन को उनके पिता को वापस लौटाने में दो वर्ष से भी अधिक का समय लगा दिया।
"मैं कभी भी अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार नहीं करूंगा," टीपू ने अपने मंत्रियों और सरदारों से कहा “चाहे इसके लिए मुझे कोई भी कीमत चुकानी पड़े।"
युद्ध के कारण मैसूर को बहुत नुकसान हुआ था। बहुत से सैनिक, घोड़े और हाथी मारे गये थे। खेत और जमीन-जायदाद नष्ट हो गयी थी और काफी पैसा खर्च हो चुका था। इसलिए टीपू ने यह फैसला किया कि वह इस नुकसान की भरपाई करने पर ध्यान देगा।
राजा बनने के समय से ही टीपू मैसूर को एक समृद्ध राज्य बनाना चाहता था। उसने खादी के उद्योग स्थापित किये। उसे मालूम था कि रेशम कैसे बनाया जाता है। वह विश्व भर की घटनाओं के बारे में जानकारी रखता था। यह उस समय की बात है जब दूसरी जगहों से समाचार केवल धीमी समुद्री डाक के द्वारा आते थे और इसलिए उन्हें पहुंचने में काफी समय लगता था।
टीपू ने दूसरे देशों, विशेष रूप से फ्रांस, से कारीगरों को अपने राज्य के लोगों को जहाज बनाने, तोप बनाने और शीशे के निर्माण का प्रशिक्षण देने के लिये बुलवाया। उसने जगह-जगह व्यापारी दल भेजे और मसालों, चंदन और कपड़े के निर्यात को बढ़ावा दिया। उसने नकदी फसलों जैसे आम, नारियल, चीड़, पान, चंदन और सागौन को भी प्रोत्साहित किया।'
घमासान से घमासान युद्ध के समय में भी पुस्तकों के प्रति टीपू का प्रेम कम नहीं हुआ। उसने एक बहुत अच्छा पुस्तकालय बनाया और विद्वानों से प्रसिद्ध ग्रंथों का फारसी में अनुवाद भी करवाया। अमरीकी स्वतंत्रता के घोषणा-पत्र से वह पूर्णतः सहमत था। वह चाहता था कि भारत के सभी राजा एकजुट होकर अंग्रेजों को देश के बाहर खदेड़ दें। फ्रांसीसी क्रांति से भी वह बहुत प्रभावित था।
नया गर्वनर जनरल रिचर्ड वैलसली 1798 में भारत आया। वह तो जैसे अपने साथ टीपू की मौत का वारंट लेकर आया था। उसके नये निर्देश के कारण भारतीय राजाओं को अपने-अपने राज्यों में अंग्रेज सैनिकों को रखने के लिए मजबूर होना पड़ा। केवल टीपू ने इस निर्देश को मानने से इंकार कर दिया।
दुर्भाग्य से, टीपू के सारे साथियों के दिलों में देश प्रेम की यह आग नहीं सुलग रही थी। बहुतों ने टीपू से गद्दारी की। वे पैसे और इनाम के लालच में अंग्रेजों से मिल गये। अंतिम मगर सबसे अधिक दुखद विश्वासघात किया मीर सादिक ने जो टीपू के गुप्तचर विभाग का प्रमुख था।
वैलसली ने टीपू पर आरोप लगाया कि वह युद्ध की तैयारियां कर रहा है। “बिलकुल नहीं," टीपू ने जवाब दिया। पर वैलसली कुछ सुनना नहीं चाहता था।
अंग्रेजों को मराठों और निज़ाम का समर्थन प्राप्त था। इस मजबूत गुट के सामने मैसूर के पास जीतने का कोई उपाय नहीं था। तलवारें टकरायीं और तोपें गरजीं । श्रीरंगपट्टण का किला लाल कोट वालों से भर गया। फिर भी टीपू ने हार नहीं मानी। वह अपने सैनिकों के साथ मिलकर लड़ता रहा। उसके सैनिक एक-एक करके मृत्यु की गोद में समाते गये। अंत में टीपू की बारी आयी गिर कर कभी न उठने की । वह 4 मई 1799 का दिन था। उस समय टीपू की उम्र अड़तालीस वर्ष भी नहीं थी।
अंग्रेजों ने कृष्णराजा वोड्यार- तृतीय नाम के एक बालक को मैसूर के सिंहासन पर बिठा दिया। पूर्णय्या को उसका प्रधानमंत्री बनाया गया। यह वही पूर्णय्या था जो हैदर अली और टीपू सुल्तान के दरबार में दीवान था। मैसूर राज्य के एक बार फिर टुकड़े किए गये। अंग्रेजों, मराठों और निजाम ने इन हिस्सों को आपस में बांट लिया। मैसूर के बाघ की मृत्यु के बाद उन्हें रोकने वाला कोई नहीं था।
कुछ इतिहासकारों का कहना है कि टीपू क्रूर और कट्टर धर्मपंथी था। जबकि दूसरे इतिहासकारों का मानना है कि वह सभी लोगों से एक सा व्यवहार करता था। उसने उन्हें बच्चों को पढ़ाने के लिए प्रोत्साहित भी किया। हम सब जानते हैं कि टीपू और हैदर के समय में मैसूर एकता, समृद्धि, प्रगति और शक्ति का प्रतीक था।
आज श्रीरंगपट्टण एक छोटा सा शांत शहर है। युद्ध के समय टीपू का महल जला दिया गया था। पर उसका महल दरिया दौलत, जहां वह गर्मियों में रहा करता था आज भी कावेरी नदी के किनारे पर खड़ा है। हैदर और टीपू के मकबरे और वह काल कोठरियां भी जहां कैदियों को रखा जाता था वहीं पर हैं। श्रीरंगनाथ देवता, जिनके नाम पर श्रीरंगपट्टण का नाम पड़ा, की मूर्ति भी एक मंदिर के शांत वातावरण में सोई हुई मुद्रा में आसीन है। इसी मंदिर में टीपू और उसके पिता हैदर ने बहुत बार दान दिया था। सड़क के दूसरे छोर की ओर, किले की दीवार के साथ, जामा मस्जिद है जहां टीपू नमाज़ पढ़ा करता था। ये सब स्थान अगर बोलते तो न जाने कितनी ही जानी- अनजानी कहानियां सुनाते।
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