आराम हराम है।
महात्मा गांधी
हम सभी को प्रेरणा देने वाले महात्मा गांधी ने हमें यह मंत्र बताया है। महात्मा गांधी ने ऐसा क्यों कहा है कि आराम हराम है?
आज भारत का युवा सोया हुआ है। सचमुच में! आज हमारे आलस करने के घंटे बढ़ गए हैं। और जैसे-जैसे प्रौद्योगिकी (technology) आगे बढ़ेगी, हमें और आलसी बनाएगी।
दो प्रश्न दिमाग में आते हैं
२) क्या विकास का नाम आलस है?
आलस करने से अपना क्या बिगड़ता है?
१) गरीबी बढ़ना: आपके पैसे नष्ट होते हैं। अर्थ प्रबंधन सही से नहीं होता है। सो कैसे? इसे मैं आपको एक कहानी के द्वारा समझाता हूं।
एक परिवार में २ सदस्य रहते हैं। पहले सदस्य का मानना है कि ज्यादा कमाओ और ज्यादा खाओ। उसका कहना है कि अपना खाना स्वयं न बनाओ बल्कि नौकरों से बनवाओ, और अपना समय और ज्यादा धन कमाने में लगाओ।
वहीं दूसरे सदस्य का सोचना इससे बिल्कुल विपरीत है। वह सोचता है कि खाना बनाना सभी को आना चाहिए। बुरे वक्त में, जब आपके अधीन कोई न होगा, आपको सिखाने वाला कोई न होगा, आपकी देखभाल करने वाले लोग न होंगे तो आपको भूख नहीं रहना पड़ेगा, ना ही होटलों में जाकर पैसे फूंकने पड़ेंगे।
कुछ समय बाद पहले सदस्य ने नौकर लगवा लिए पर उसका बर्ताव वही पहले जैसा है। उसका सोचना है कि स्वयं कि स्वयं किसी काम को हाथ मत लगाओ और सारा काम नौकरों से करवाओ।
एक दिन नौकर ने उसके पसंद का खाना नहीं बनाया तो इसने नौकर से अनाप-शनाप कहना प्रारंभ कर दिया। तंग आकर नौकर ने बदला लेने का सोच लिया, उसने खाने में जुलावे की दवाई डाल दी, जिससे मालिक को बड़ी परेशानी हुई। उपचार में कई हजारों रुपए बर्बाद हुए। कुछ दिन मालिक को अपने काम से छुट्टी लेनी पड़ी जिससे उसकी आय पर भी असर पड़ा।
अब आप बताइए कि इस कहानी में क्या झूठ है? क्या यह कहानी सचमुच में नहीं घट सकती? अब अर्थ प्रबंधन किसका सुगठित हुआ? पहले सदस्य का या दूसरे सदस्य का?
२) शरीर में कई तरीके की बीमारियों का पैदा होना: चलिए इसे भी समझ लेते हैं। व्यक्ति मरता कब है? व्यक्ति को मरा तभी कहा जाता है जब वह चलता फिरता नहीं है। जो व्यक्ति आलसी बनकर रहता है वह ज्यादातर समय बीमार रहता है।
कुछ एक बीमारी तो देखने में भी आ जाती है जैसे कि मोटापा बढ़ना, शरीर में गंदगी जमना, मानसिक रोगी बन बैठना, आदि। इसलिए आदमी कुछ भी न करे तो कम से कम सुबह-शाम खुली हवा में पैरों पर सैर करने निकल जाया करे। ऐसा महात्मा गांधी भी किया करते थे। पर आज कल के आलसियों का क्या कहना। अब उनके हाथ में मोबाइल आ गया है। वे अपने आप से दूर होकर मोबाइल के पास आते जा रहे हैं। जिससे और भी बीमारियां बढ़ रही हैं।
क्या आजकल के गैजेट्स हमें आलसी बना रहे हैं? |
३) आत्मविश्वास में कमी: पहले मैं दोपहर में सोया करता था। मेरे माता-पिता को यह सोना अच्छा नहीं लगता था। वे रोज मुझे इस बात के लिए टोकते थे। मैं ऐसा इसलिए करता था क्योंकि मैं राजीव दीक्षित से बहुत प्रभावित हूं। एक बार उन्होंने अपने भाषण में दिन के खाने के बाद सोने की बात की थी। इसलिए मैंने वैसी आदत डाल ली।
पर एक पुरानी पुस्तक में मैंने पढ़ा कि दिन के खाने के तुरंत बाद नहीं सोना चाहिए क्योंकि इससे खाना जहर समान बन जाता है। और पहले से मेरे माता-पिता का टोकना जारी था ही। जिससे मेरा आत्मविश्वास खंडित हो जाता था। मुझे डर लगता था कि कहीं मेरे माता-पिता को भनक न लगे कि मैं दिन में सो रहा हूं। किशोरावस्था के दिन, मैं बिना मेहनत किए ऐसे ही बर्बाद कर रहा हूं। मैं सोने के बाद उठने पर घबरा जाता था। फिर पुस्तक का साथ मिला। अब मेरा खाने के तुरंत बाद सो जाने की आदत छूटी।
४) शरीर से तेज चला जाना: जो मेहनत करते हैं उनका चेहरा चमकता है। यदि वे मेहनत खुशी के साथ करें तो और भी चमकेगा। पर जो लोग आलसी बने बैठे हैं उनके चेहरे व शरीर से तेज गायब हो जाता है। जिससे उनकी बातों का प्रभाव दूसरों पर नहीं पड़ता है।
अब आते हैं दूसरे प्रश्न पर।
क्या विकास की वजह से आलस्य है?
बेशक! पर विकास का नाम आलस्य नहीं है। आजकल जो विकास की परिभाषा है उसे देखने पर तो ऐसा लगता है कि जैसे विकास करना और गुनाह करना एक हो। ऐसा विकास हमें नहीं चाहिए जिसमें गरीबों की रोटी छिन जाए और वे अमीर बनने की होड़ में लग जाएं। विकास वही अच्छा है जिसमें गरीब और अमीर दोनों संतोष के साथ जिएं। आदान-प्रदान में प्रधानता प्रेम की हो, न कि पैसों की। धीमे-धीमे गरीब और अमीर दोनों ही आलस्य से बच जाएंगे और एक दूसरे के लिए काम करेंगे।
विकास की वजह से आलस्य है इसके कई उदाहरण हैं। एक मुख्य उदाहरण हम देख लेते हैं। लगभग १५० वर्ष पहले मनुष्य ने बिजली से चलने वाली मशीन जो धागा बनाती है, उसकी खोज की। यह वही समय था जब फिरंगियों ने भारतवासियों को आलस में रहने का पाठ सिखाया।
आज से लगभग ५० साल पहले तक लंकाशायर में सूत कातने की मशीन लगी हुई थी। ये बिजली से चलने वाली मशीनें खूब फल रहीं थी।
उसके बाद आये कृत्रिम रेशे। जिन्होंने तो इन मशीनों पर भी ताला लगा दिया। अब वस्त्र और भी जल्दी तैयार होने लगे हैं। उनकी कीमत गिर गई है। पहले घर-घर चरखा चलता था। वस्त्रों से हमारा खूब लगाव था। हम सभी वस्त्रों के विज्ञान को पढ़ते व समझते थे। और आज मानव की मूल जरूरत जिसमें रोटी, कपड़ा और मकान है, वह उससे ही दूर जा रहा है।
आज मनुष्य को समझना चाहिए कि वह एक बार को इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स के बगैर रह सकता है पर रोटी, कपड़ा और मकान के बगैर नहीं।
हमारे सामने से कई प्रसिद्ध व्यक्तियों के उदाहरण हैं जिन्होंने मोबाइल का पूरी तरह से त्याग कर दिया है।
क्या प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आगे बढ़ना गुनाह है?
जैसी प्रौद्योगिकी का प्रचलन चल रहा है उस हिसाब से प्रौद्योगिकी का भविष्य बहुत खराब है। आपने पीछे देखा कि कैसे विदेशी मिलों ने हमारे हस्तशिल्प का हृास किया और फिर कृत्रिम रेशा ने विदेशी मिलों पर ताला लगा दिया।
यदि प्रौद्योगिकी का मतलब एक दूसरे के व्यवसाय को नष्ट करना है तो प्रश्न उठता है कि यह प्रौद्योगिकी की उन्नति है या जानवरों सा बर्ताव? क्योंकि जानवर में भी ऐसा ही चलता है। बड़ा जानवर छोटे जानवर को खा जाता है।
जिम्मेदार नागरिक होने के नाते हम क्या कर सकते हैं?
१) मोबाइल का कम से कम प्रयोग।
२) भारतीय हस्तशिल्प के बारे में जानकारी रखें। ३) अपना दर्शन या आस्था बदलने का प्रयास करें। समझें कि भारत पहले कितना उन्नत था और अब क्या है।
४) डरें नहीं। युवा वर्ग सामने आएं और सही को सही एवं गलत को गलत कहने की हिम्मत रखें।
५) नौकरी की इस होड़ पर पुनर्विचार करें।
६) खाने एवं सोने का समय सुनिश्चित करें।
७) खुश रहें। इष्ट का विचार कर के मुस्कुराएं।
८) कपड़े बनाना नहीं जानते हैं तो कम से कम खाना बनाना सीख लें, इत्यादि।
धन्यवाद।
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