नमस्कार दोस्तों आज मैं आपको आपके पहनावे के बारे में सचेत करूंगा और इसकी वजह से हो रही हानि से बचने के उपाय बताऊंगा।
आज किसी भी व्यक्ति से पूछ लें तो वह यही कहेगा कि कपड़े की कीमत में पिछले ७० सालों में भारी गिरावट आई है।
मेरे दादाजी बताया करते थे कि उन्होंने कोई १९६० के दशक में लिबर्टी कंपनी की शर्ट खरीदी थी जो कि उस समय ₹३० की पड़ी थी।
आज महंगाई बढ़ गई है। उस समय एक तोला सोना ₹१०० का आता था जो आज ₹५०००० के लगभग का है तो महंगाई ५०० गुना बढ़ गई है। उस हिसाब से उन्हें वह शर्ट आज के ₹१५००० की पड़ी।
आज सामान्य रूप से व्यक्ति ₹५०० की शर्ट लेने से भी घबराता है। इसका मतलब कपड़ों में कुछ तो गड़बड़ है।
जब हम कपड़ों के विषय में इतिहास के पन्ने पलटते हैं तो पाते हैं कि पिछले १५० सालों में कपड़ों के उत्पादन में बड़ा बदलाव आया है।
आज से लगभग डेढ़ सौ साल पहले तक प्रत्येक गांव अपने कपड़ों का उत्पादन स्वयं करना जानता था। मुख्य रूप से कपड़े कपास से, चरखे पर कातकर, फिर हथकरघा पर बुन लिए जाते थे। भारत के गांवों के लगभग सभी लोग कपड़ा उत्पादन में अपनी भूमिका निभाया करते थे।
फिर आए अंग्रेजों के मशीन पर से बने कपड़े। मैं इस पोस्ट में आपको यह नहीं बताऊंगा कि हमारे वस्त्र उत्पादन को कैसे-कैसे हथकंडे अपनाकर बर्बाद किया गया था।
यह अंग्रेजो के मशीन पर बने सूती कपड़े अब खादी से सस्ते थे क्योंकि इन कपड़ों में व्यक्ति की कारीगरी लगी ही नहीं। यह कपड़े मुख्यतः मैनचेस्टर व लंकाशायर की मिलों में बने रहते थे। पर यह इतने सस्ते भी नहीं थे। मेरे दादाजी की शर्ट, जो '₹१५०००' की आई थी, मिल पर ही बनी थी।
गांधी जी ने जो १९१५ से १९४८ तक खादी आंदोलन चलाया था, वह असफल रहा। उसके दो कारण थे
१) उस समय ब्रिटिश राज स्थापित था
२) उत्पादकों और ग्राहकों की लापरवाही।
गांधी जी की मृत्यु के लगभग दस सालों बाद फिर एक ज्वालामुखी फटा, जिसने धीमे-धीमे कपड़ों की कीमत कम कर दी।
वह ज्वालामुखी था कृत्रिम वस्त्रों का आविष्कार।
कृत्रिम वस्त्र कैसे बनते हैं?
अब इन कृत्रिम वस्त्रों ने तो लंकाशायर व मैनचेस्टर की मिलों पर भी ताला लगा दिया है। ऐसा कैसे? क्योंकि जो विद्युत मशीनें सूत कातने का काम करती थीं, कृत्रिम रेशा आने के बाद में निठल्ली हो गईं।
पहले मिल के कपड़ों ने हमारे हाथों का काम छीन लिया। अब कृत्रिम वस्त्रों ने मिलों का काम छीन लिया।
कृत्रिम कपड़े डामर से बनते हैं। तो इन्हें कितनी भी मात्रा में बनाया जा सकता है। इनकी कीमत प्लास्टिक से बनी पानी की बोतल + बिजली + अन्य रसायन के बराबर है।
तो यदि शुद्ध कृत्रिम रेशे की शर्ट आपको ₹५०० में मिल रही है तो आपको मान कर चलना चाहिए कि उसके उत्पादन की कीमत लगभग ₹५० रही होगी।
पर, यह गलत है! इस शर्ट की कीमत ₹५० से कहीं ज्यादा है। इस शर्ट की कीमत है ₹५० + दो व्यक्तियों की जान। एक पहनने वाले की दूसरी बनाने वाले की।
बताइए क्या आप यह कीमत चुकाने को तैयार हैं?
आज भारत के लगभग ९०% कपड़े एक आधुनिक रेशे से बने हुए हैं। जिसका नाम है पॉलिस्टर (polyester)।
यह पॉलिस्टर दो रासायनिक पदार्थ के मेल से बनता है। पहला एथिलीन ग्लाइकोल और दूसरा टैरेप्थालिक एसिड। एथिलीन ग्लाइकोल पेट्रोल से आता है। दोनों रसायनों को पढ़ा-लिखा वर्ग कैंसर देने वाला (carcinogenic) जानता है।
यह बात आप भी महसूस करते होंगे। कृत्रिम रेशे के वस्त्र को पहन कर आपको भी घुटन महसूस होती होगी। पसीना आता होगा। पसीना जमता होगा। घमोरियां, सड़न, जलन व खुजली होती होगी। चर्म रोग भी होते होंगे। स्किन कैंसर होते होंगे। तभी तो आज व्यक्ति की आयु अवधि घट कर ६०-७० वर्ष की हो गई है।
कितनी शर्म की बात है कि आदमी अपनी मुख्य जरूरतों के बारे में अनभिज्ञ है और पैसे कमाने की होड़ में लगा हुआ है।
क्या है समाधान? कैसे बचा जाए इन जानलेवा कपड़ों से?
यदि आप खादी के कपड़े बना नहीं पाते हैं या खरीदने की क्षमता नहीं रखते हैं तो कम से कम सुनिश्चित करें कि कम से कम आपके कपड़े सूती हों (कपास से बने हुए हों)।जब तक आप कपड़े के विशेषज्ञ नहीं है तब तक यह पहचानना बहुत कठिन है कि कौन सा वस्त्र किस रेशे से बना हुआ है। तो आप क्या करेंगे? आप कपड़े उन्हीं दुकानों से लें जो विशेष रूप से यह दावा करतीं हैं कि उनके यहां के कपड़े शुद्ध कपास से बने हुए हैं। यह कपड़े खादी से सस्ते होंगे पर आपके सामान्य कपड़ों से लगभग दोगुने-तिगुने महंगे होंगे।
यदि आप उक्त बीमारियों से बचना चाहते हैं तो आपको अपने पहनावे के बारे में सजग होना पड़ेगा। इसके लिए आपका मुख्य विकल्प सूती कपड़े ही होना चाहिए।
इस पोस्ट को आप जन-जन तक फैलाइए और अपने प्रिय जनों को बचाइए।
धन्यवाद।
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